Text selection Lock by Hindi Blog Tips

Tuesday 17 December 2013

    मुक्तक ----
        रजनीगंधा जब जब खिले , बनके खुशबु महका देते हो
        पूर्णिमा का जब चाँद निकले ,बनके रौशनी छा जाते हो
        कल में तुम,आज में तुम,मुझमें तुम,उसमें तुम,सबमें तुम
        प्रभु दुःख में जब याद करूँ , तुम बनके श्वाँस जीवन देते हो
        -----मँजु शर्मा
मुक्तक ---
       आज तक रखा हुआ है सम्हाल के गुज़रे हुए पलों  को
       बड़े जतन से सहेजा है जिंदगी के स्याह-सफ़ेद बीते पलों को
       जब जब कचोटने लगता है कोई किस्सा अंतर्मन मेरा

       गीत बुनने लगती हूँ खोल के यादों के उलझे हुये तारों को
      ---मँजु शर्मा
मुक्तक---
मुलाकात हमारी एक बहाना थी, मिलन आज तक कायम है
राहें जिंदगी हमारी कठिन थी , सफर आज तक सुहाना है
मशहूर हम इस कदर हुए , नज़ीर ज़माने की बनने लगे
सीने में तड़प जो उठी थी , चुभन अभी तक कायम है
----मँजु शर्मा
मुक्तक ----
मेरे जो कदम उठे थे सत्य की तलाश में 
जुल्फों में तेरी अटक गये सुकून की आस में
घर से निकलते लगन थी भव सागर पार करने की
रुके रह गये यहीं चारों धाम पाने की आस में
----मँजु शर्मा
मुक्तक ---
तेरी आँखों की चमक ही ,मेरे चेहरे का नूर है
तेरी लबों के अल्फाज़  ही  ,मेरी जिंदगी का सुर है
तुम्हारी बे होशी अँधेरा है मेरे जीवन पथ का
तेरी लड़ने की कोशिश ही , मेरी जिंदगी का दस्तूर है
---मँजु शर्मा
बाल कविता ---आया मौसम जाड़े का …

मौसम ने बदली करवट
आया मौसम जाड़े का
दिन छोटे और रातें लम्बी
सोके उठाओ आनंद जाड़े का

सरपे टोपी गले में मफलर
हाथ में दस्तानें पैरों में मोजे
मोटे मोटे कोट पैंट पहन के
सैर कर उठाओ आनंद जाड़े का

गुड़- मक्खन और मूँगफली
मटर की घुघरी ,गन्ने का रस
संग ताज़ा मट्ठा,साग -मक्का दी रोटी
भरपेट खाके उठाओ आनंद जाड़े का

आसमान ताकीद करे फेंकने की
बर्फ के मुलायम फाये बादलों को
लेकर छाता दौड़ के जाओ
खेलो कूदो उठाओ आनंद जाड़े का

मत भूलना माँ शारदा को
मांगो उनसे वरदान विद्धया का
ओढ़के रज़ाई ले कापी कलम किताबें
पढ़ाई कर उठाओ आनंद जाड़े का
----मँजु शर्मा

Friday 13 December 2013

कविता --ये कश्मीर…………

ये कश्मीर का  
निर्मल नीला आसमान
और सूर्योदय की पहली
सुनहरी मुलायम किरणें
जब छूती जमीं
कण- कण,पत्ता-पत्ता बूटा -बूटा
आनंदित हो बातों में
मशगूल होने लगतें कि
धमाके की आवाज से
दहल जाता परिसर 
सहम कर किरणें
ठहर जातीं अधर में
खौफ खा कर .... वृक्ष
समेटने लगते अपने
पत्तों ,फूलों,और कलियों को ……
और सिमट जाते
बेबस हो कर.......। 
ये कश्मीर का
निर्मल नीला आसमान
और विशाल पर्वत मालायें 
निकली इनसे नन्हीं नन्हीं
चंचल शिशु कन्या सी
निर्मल जल धाराएं
सूखी प्यासी धरा को
स्पर्श कर , जीवन दे
प्राणियों और वनस्पतियों को
वेगवान ,निरंतर ,प्रवाहित
परिवर्तित होती जाती
सुन्दर पवित्र बाला सी
कि बमों के धमाके होते
वो धक् से रह जाती
चंद पल को ठहर कर
दौड़ने लगती खौफज़दा हो कर …
सहमे हुए सब प्राणी
देखते रह जाते
बेबस हो कर। …।
ये कश्मीर का
नीला आसमान और
हिमाच्छिद पर्वत शिखर
सुन्दर स्वच्छ दुग्ध धवल …
धुंध से ढ़के पर्वत, झीलें,
जमीन,वृक्ष और मकान
पर्वतों से आती सर्द हवाएं
तन मन को रोमांचित करतीं
प्राण भरती कण कण में
बढ़ती जातीं मैदानों की ओर  … कि
धमाकों से दहल उठती घाटी
धवल धुंध कलुषित हो
ढ़क लेती पूरा आसमान
हवायें दो पल
स्तब्ध हो के ठहर जाती
फिर जहरीले प्रदूषण से
ग्रसित हो कर धीमे धीमे
फिसलने लगती
मैदानों की ओर
ये कश्मीर का
निर्मल नीला आसमान
सुन्दर सजीले इंसान
औए बमों के धमाके
जख्मी प्रकृति और इंसानियत
पूछते हैं यक्ष प्रशन
कोई तो बताये
ये जख्म देने वाले,
होते कौन ?
क्यों हमें जख्म देते हो ?
हमारा कसूर क्या है ?
कब तलक घायल यूँ करते रहोगे ?
इन मर्मान्तक सवालों पे
सियासतदाँ खिलखिला पड़ते
आततायी ठहाका लगाते
ऊपर बैठा खुदा भी है मौन
अभिशप्त किया जा रहा
पशु- पक्षी प्रकृति और इंसान
जबरन जुल्म ये सहने को
और धुंधला रहा है
कश्मीर का ये सुन्दर
निर्मल नीला आसमान
----मँजु शर्मा

 

Thursday 5 December 2013


मुक्तक ---
सहमी हुयी शांत झील में, मौजों की हलचल होये तो कुछ बात बनें
सिये हुए लबों से सुर निकले, फिजाओं में संगीत गूँजे तो कुछ बात बनें

कब तलक जख्मों को खुरचते रहोगे, मरहम लगवा कर मुस्कुराओगे
तब नेमत खुदा की बरसे ,ठहरी हुयी जिंदगी में रवानगी होये तो कुछ बात बनें
----मंजु शर्मा
मुक्तक ---
  गेसुओं के जाल से वो बचते रहे सदा
 सुकून की चाह में वो भटकते रहे सदा
 महिमा निराली है जुल्फों की छाँव की
 एक बार जो टकरा गए वो उलझे रहे सदा
 ----मंजु शर्मा
मुक्तक ----
तुझपे दिल हार बैठी ,जिंदगी सँवरने की आस में
भटकती दर दर रही , झलक दिखने की आस में
मंदिर ,मस्जिद ,चर्च, गुरुद्वारा भी ना कर सके तमन्ना पूरी
तमाम उम्र गुज़र गयी , तड़प मिटने की आस में
 ----मंजु शर्मा
 सफर दिन और रात का ----
  दिन भर चलते चलते
  थके निढाल सूरज ने
  किरणों को बटोरा
  अपने आँचल में
 और ज्यों ही लुढ़का
  समुन्दर की गोद में

  रजनी बाला पैरों में
  घुँघरू कलरव के बांध
  हौले हौले,छम छम करती
  जब आने लगी
  आबाद सब नीड़ होने लगे
  तब आसमान में
  चुपके से किसी ने
  ढके हुए थाल से

  तारों को दूर व्योम में
  अनंत तक बिखेर दिया
  अचंभित बाला रुक न पायी
  चुन चुन कर तारों को
  अपने आँचल में
   झट से टाँक लिया
   मुखड़े पे पड़ा घूँघट हटा
   ले मादक अँगड़ाई
   ज्यों रजनी बाला इतरायी
  चाँद मुस्कुराया और 
  चांदनी से जग
  सराबोर किया
  त्यों दूर क्षितिज़ पे
  चतुर्दिक हलचल पसरायी
   तारों के मेले में
   जगमग रौशनी में
   हौड़ मची उसे पाने
   जल ,थल और नभ में
   वो भी तो थी
   उत्सुक और बेसबर
   स्वप्निल मनमीत वरने
   वक्त यूँ ही गुज़र गया
   जीत न सका कोई

   उसका दिल
   निराश वो होने लगी
   सूरज आ गया
   हो तरोताजा अम्बर में
  उस से पुनः
  आने का वादा कर
  रजनी चली गयी सोने
 ये ही है सफर
 दिन रात का

 निभा कर दे रहे
 वे जीवन जग को
 युगों युगों से अनवरत
 अनवरत  .... अनवरत
  ---मंजु शर्मा
 
मुक्तक ---
आ गया फिर चुनावी बसंत ,फैला ली जनता ने उम्मीदों की झोली
आ गये सर्व दलीय नेता ,लेकर हसीन जादुई वादों की पोटली
खुशहाल ,शिक्षित ,सुरक्षित ,जीवन का सपना संजोय मतदान किया भारी  
सत्ता मद में चूर नेता प्रजा को भूले ,खाली रह गयी जनता की झोली
----मँजु शर्मा

Saturday 23 November 2013

लघुकथा----समानता
आठ दिन पहले ही काम पर लगी कमला आते ही बिना मांगे अपने
देर से आने की सफाई बर्तन धोते हुए देने लगी ----
-" मैडम जी तेरह नम्बर में मेरी बहन काम करती है ,उसे आज सुबह ही फीट
आ गया,तो मुझे ही उसका काम करने जाना पड़ा , इसीलिए देर हो गयी " ,
"अरे ! तो डॉक्टर को दिखाया ? "
" कहाँ मैडम जी , उसका आदमी ले जाता ही नहीं ,खुद काम धंधा करता नहीं
है , तो डॉक्टर से इलाज के पैसे कहाँ से आयेंगे ,छोटे छोटे दो बच्चे हैं उसके ,
खाने को ही पूरा नहीं पड़ता, बहन साहब लोगों से कह सुन कर काम लगवाती
भी है तो हरामी काम करता ही नहीं ,छोड़ कर भाग आता है ,दिन भर पड़ा
हुआ टीवी देखता रहता है,या खटिया तोड़ता है ,और … जब मन होता है
बहन से पैसे छीन झपट कर शराब पीने चला जाता है मरदुआ, बहन चिंता
के मारे सोचते ही बैठी रहती है सोच-सोच कर ही उसे फिट आने लगे हैं। "
तीन चार दिन बाद ही वो आते ही शुरू हो गयी ---
" मैडम जी आज बहन को फिर से फिट आया है ,भाई आकर उसे और उसके
बच्चों को ले गया है , बहनोई को छोड़ दिया कि तू अपना अपने आप देख,
बहन का इलाज कराएँगे,...मैडम साहब छः-सात दिनों से घर पर ही हैं ? …"
बेडरूम की तरफ देखते हुए मिसेज़ सिंह ने कुछ शर्मिंदगी से कहा ---
" हाँ तबियत ठीक नहीं है साहब की " ,, साहब के रोज -रोज छुट्टी लेकर घर
पड़े रहने से परेशान मैडम को अपने और कमला की बहन में कुछ अंतर नज़र
नहीं आ रहा था।
-----मंजु शर्मा
कविता ---मैं भावनाओं की……।

मैं भावनाओं की
बहती नदी
वेगवती निरंतर प्रवाहमान
किस्सों में ढलती
कहानियों में पलती
कविताओं में बहती
मैं भावनाओं की
बहती नदी …
नियमों के तटबंध
ना रोक सकें
मन की गतिशीलता
उसूलों कि चट्टानें
न बांध सकें
भावनाओं के प्रवाह
की निरंतरता
मैं भावनाओं की
बहती नदी
अम्बर में बिखरे
चाँद सितारे
बागों में खिलते
फूल बहुतेरे
कलरव करते पंछी
मुक्त विचरते
उपवन में प्राणी
उर में जगाते
निरन्तर भाव
मैं भावनाओं की
बहती नदी
रिमझिम रिमझिम बरसता
असमान से पानी
पीइ.. कांआ…पीइ....कांआ पुकारते
प्यासे चकोर
सुन्दर पँख फैलाये
नृत्यरत मोर
भावनाओं को
अलंकृत करते शब्दों से
शब्द कविताओं में
ढलते जाते …
बहते जाते .... बहते जाते
मैं भावनाओं की
बहती नदी
वेगवती निरन्तर प्रवाहमान
मैं भावनाओं की
बहती नदी ……
मैं भावनाओं की
बहती नदी …।
----मंजु शर्मा

Sunday 17 November 2013

मुक्तक ---
रिश्तों पे छाई कालिमा पिघले तो ,कुछ पन्ने रंगूँ सर्द रातों में
जज्बातों पे जमी बर्फ पिघले तो ,कुछ सपने बुना करूँ सर्द रातों में
स्याह अँधेरों में विलीन हो जाने से पहले ,आकर थाम लो मुझे

मेरी बहकी सांसों को सँवारले तो , कुछ सर्जित करूँ सर्द रातों में
----मंजु शर्मा
उग आये सौ सूरज ,जब लब पे तेरा नाम आया
दूर हुए तम अंतस के ,जब दिल में तेरा नाम आया
हर प्राणी कण कण में ,प्रभु सर्वत्र व्याप्त तू ही तू
शून्य, बना सत्यं शिवम् सुंदरम , जब जुबां पे तेरा नाम आया
-----मंजु शर्मा

Sunday 10 November 2013

जब दुःख का अँधेरा घिरने लगे ,और रात गुजरने से इंकार करे
जब जग में वीराना छाने लगे, साया साथ निभाने से इंकार करे 
खुश होओ सुबह का उजाला दूर नहीं ,सूरज अम्बर पे चमकेगा

और धरा को सूर्य किरण छूने लगे, तब बदी टिकने से इंकार करे
----मंजु शर्मा

Saturday 9 November 2013

मुक्तक ---

       ये बंधन बड़ा अनोखा है ,अँधेरे और उजाले का
       ये रिश्ता बड़ा निराला है ,साँझ और सवेरे का
       विपदाओं की बारिश और अज्ञानता की धुंध व्याप्त हो
       अंतस में जब झांकेगा रे ,राज खुलेगा इन्सां और रब का

       ---मंजु शर्मा

Thursday 7 November 2013



गीत --- एक दीप तुम जलाओ


एक दीप तुम जलाओ ,
एक दीप मैं जलाऊँ
एक दीप प्रीत का
एक दीप ज्ञान का
एक दीप रीति का
एक दीप दान का
एक दीप तुम जलाओ
एक दीप मैं जलाऊँ ……
एक हाथ तुम बढ़ाओ
एक हाथ मैं बढ़ाऊँ
अशिक्षा की ,धर्मान्धता की
अंधविश्वाश की ,कुप्रथाओं की
एक स्याही-लकीर तुम मिटाओ
एक काली लकीर मैं मिटाऊँ
एक दीप तुम जलाओ 
एक दीप मैं जलाऊँ  ………
एक आवाज तुम दो
एक आवाज मैं दूँ
मानवता की ,समानता की
अहिंसा की ,इन्साफ की
एक पुकार तुम सुनो
एक पुकार मैं सुनूँ
एक दीप तुम जलाओ
एक दीप मैं जलाऊँ  .......

एक कदम तुम उठाओ
एक कदम मैं उठाऊँ
वतन में अमन का
समाज में सदभाव का
नारी के सम्मान का
देश के विकास का
एक दीप तुम जलाओ
एक दीप मैं जलाऊँ  .......
एक प्रज्वलित दीप तुम्हारा
एक प्रज्वलित दीप मेरा
मिले बन जाये पवित्र ज्योति
विशालकाय दिव्य-अखण्ड ज्योति
अँधियारा मिटा दे हर अंतस का
उजला कर दे कण कण जग का
एक दीप तुम जलाओ
एक दीप मैं जलाऊँ  ……
एक दीप प्रीत का
एक दीप ज्ञान का  .....
-----मंजु शर्मा
लघुकथा - फेसबुक

दिपावली की स्याह काली रात तारों की छाँव और बिजली कि जलती बुझती रौशनी से टक्कर लेती हुयी आहिस्ता आहिस्ता गुजरती जा रही थी। रात के तीन बज चुके थे।पटाखों का शौर थम चुका था ,यदा-कदा एकाध आवाज से रात की नीरवता भंग हो जाती थी। मनीषा ने गर्दन घुमा कर देखा ,दो सालों से डिप्रेस्ड चल रहे पति दीवार ताकते-ताकते सो गए थे। दोनों बच्चे टीवी देखकर और फेस बुक पे नेट सर्फिंग करते थक कर सो गए थे। डिप्रेस्ड पति का ईलाज कराते और उन्हें सम्हालते सम्हालते थक कर वो स्वयं कुंठाओं में घिरने लगी थी। दिपावली कि चहल-पहल भी घर में छायी उदासी और मनहूसियत दूर नहीं कर सकी तो, मनीषा लैपटॉप खोलकर बैठ गयी, विचलित हो रहे ह्रदय के भावों को कहानी,लेखों और कविता में उड़ेला और विभिन्न ग्रुप्स में पोस्ट कर खुद को हल्का महसूस कर अपनी खीज़ व कुंठाओं को तिरोहित कर खुद का मानसिक संतुलन खोने से बचा लिया और फिर अपने जीवन के साथी बन चुके "फेसबुक" पर मुक्त और खुश मिजाजी से फेसबुकिया मित्रों को दिपावली की शुभकामनायें पोस्ट करने लगी।
----मंजु शर्मा
  लघुकथा ---- आँखें
     
           विजय और मनीषा जुहू बीच पर अपने अपने विचारों में तल्लीन बैठे थे कि
  आकथू कि आवाज आने से दोनों की तन्द्रा भंग हो गयी। मनीषा ने देखा थूक धीरे धीरे रेत में ज़ज्ब हो रहा है और उसके दिमाग में तुरंत कौंधने लगा ,वो हनीमून का समय था। अरैंज मैरिज को दस दिन हुए थे। प्यार के क्षणों में उसने पूछा था -
 "सुनो ! एक बात बताओ , मैं कैसी लग रही हूँ ?",
 " जैसी सब औरते लगती हैं " ,
 "अच्छा ,और मेरी आँखें ?"
 " तुम्हारी आँखें,अ  ……  जैसे किसी ने रेत्ते में थूक दिया हो ऐसी.…  " मनीषा सुन कर अवाक् रह गयी थी, अपनी आँखों के लिए इस विचित्र उपमा को पाकर उसकी आँखों में अपमान और दुःख से आँसु भर आये थे वो एक दम बुझ सी गयी थी।  वो जब भी "आक्थू " का स्वर सुनती तो उसके मन में नए नवेले पति की दी हुयी वो विचित्र उपमा कौंध जाती और वो सोचती जब थूक रेत में गिरता है तब जैसी, या जज़्ब हो रहा होता है, तब जैसी, अथवा जब जज़्ब हो चुका होता है तब के जैसी है मेरी आँखें? बीस साल से इसी सवाल से अक्सर उलझती रहती थी।
    " चलिए जी अब रात होने लगी है , सुबह हॉस्पिटल के लिए जल्दी निकलना होगा।"
  " आँखों का डोनर मिल गया ? "
   " हांजी " ,खुश होते हुए विजय बोला -
   "अरे वाह महीनों बाद डोनर मिला है ,अच्छा कौन है वो फरिश्ता ? "
    " वो और कोई नहीं ,मैं ही अपनी एक आँख दे रही हूँ ",
   "क्या …? तुम ?  क्यों ... ?"
    " पिछली  जैसी मनहूस दिवाली किसी की जिंदगी में ना आये जिसने तुम्हारी आँखें छीन लीं थी,…  साल भर से किसी डोनर का इन्तजार करते करते मैं भी थक गयी हूँ, तुम्हें इस हालत में और नहीं देख सकती, अब मैं ही तुम्हें अपनी एक आँख  दूंगी  … चलेगी रेत्ते में थूकने जैसी मेरी आँखे " ?
     -----मंजु शर्मा

Monday 28 October 2013

    ----मुक्तक
    पहुँच से क्षितिज दूर ही सही, छूना ख़्वाब सबका तो है
    अँधेरे की चादर बड़ी ही सही , पार उसके उजाला तो है
    नाता स्याह सफ़ेद पलों सा है , उनसे मेरी जिन्दगी का

    मुलाकात के पल छोटे ही सही ,यादों का कीमती पिटारा तो है
    ----मंजु शर्मा
    २- मुक्तक ----
    अँधेरे भी रास आते है , गम सारे ये छुपा लेता है
    दुःख भी सीने से लगा लेते है , छोटी ख़ुशी को बड़ा बना देता है
    छाँटने के लिए वक्त नहीं ,ये जीवन छोटा लगता है
     नफरत भी उसकी प्रिय  है , उस से नाता जोड़े रखता है
 ----मंजु शर्मा
मुक्तक -----
        बुझते हुए चिरागों को भी ,फितरत है समेट लेना मेरी
        आँचल की छाँव दे के , आँधियों से बचाना आदत है मेरी
        गिरते हुओं को सहारा दे सकूँ , इतनी शक्ति दे दो मुझको
        जीत जाऊं सदा लड़ अंधेरों से, बस इतनी इल्तजा है मेरी
           ---मंजु शर्मा

       लघुकथा ---करवाचौथ



राधिका की पहली करवाचौथ और ऑफिस का महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट सबमिट करने की
आखिरी तारीख एक ही दिन में थी। वो फटाफट पति को नाश्ता खिला कर और एक खाने
का डिब्बा उसे दिया और दूसरा अपने बैग में रख कर बस स्टॉप की और निकल ली।
ऑफिस में ही रात हो गयी चाँद निकल आया था ,और काम भी समाप्ति की ओर था।
राधिका ने बिसलेरी की बोतल से चाँद को पानी दिया ,गणेश भगवान को स्मरण कर पति
की लम्बी आयु की प्रार्थना की और एक दुकड़ा पूरी-सब्जी की बाहर चिड़ियों के लिए रख आई
और खाना समाप्त कर पुन:काम करने लगी। सहयोगी मनोज बोला -
" अरे राधिका जी आपने यहीं पर करवाचौथ का व्रत खोल लिया ,"
"हाँ ,तो ?"
"आपने पति की आरती नहीं उतारी ,ना ही उनके पैर छू कर उनका आशीर्वाद लिया ,"
" हाँ s s मुझे इन सबकी जरुरत महसूस नहीं होती , अरे जिसकी लम्बी आयु की प्रार्थना
हम औरतें भगवान् से करतीं हैं ,वो अपनी ही लम्बी आयु का आशीर्वाद कैसे दे सकता है ?
मैं तो भगवान् के ही पैर छूतीं हूँ और भगवान् से ही अपने प्रिय की अच्छी सेहत और लम्बी
उम्र की प्रार्थना करती हूँ।" मनोज को मर्दों के कमजोर और असहाय होने एहसास होने लगा
उसने निश्च्य किया की वो अपनी पत्नी से करवाचौथ के दिन तो अपने पैर नहीं छुआएगा ।



-----मंजु शर्मा

Thursday 17 October 2013

    लघुकथा -- शर्मिंदा
       
          छोटी -छोटी लगभग सात -आठ बरस की दो बच्चियां आयीं और डोरबेल दबायी ,
      मि.सिंह ने दरवाजा खोलकर उन बच्चियों देखा -" कहो बच्चों क्या चाहिए "
      " अंकल हम स्कूल की तरफ से लड़कियों की मदद के लिए बनी संस्था के लिए
      डोनेशन लेने के लिए आयीं है " , हूँ मि.सिंह ने उनसे पेपर लेकर देखे और उन्हें
      अन्दर आकर बैठने के लिए कहा । भीतर की तरफ चले गए , वे पैसे लेकर आये
      बच्चियों को बाहर ही खड़ा देखा, पैसे देकर पेपर पे साईन करते हुए स्नेह से कहा -
        " अरे बच्चों तुम लोग अन्दर आकर नहीं बैठे, बहुत गर्मी है पानी पियोगी ?"-
        "नो नो दादा जी , हम किसी के भी घर में अन्दर अकेली नहीं जातीं " ,
       " क्यों बेटा "
        " दादा जी मम्मी ने मना किया हुआ है "
       " वो क्यों भला "
        "  आजकल रेप बहुत होने लगे है ना " बच्चियों ने तपाक से कहा ,अवाक् रह गए
        मि.सिंह मानो समस्त मर्द जात को छोटी बच्चियों ने नंगा कर दिया हो,
         " थैंक्यू दादा जी " कह कर वे जल्दी से चलती बनी और मि.सिंह शर्मिंदगी और
        अपराधबोध के तले दबे बुत बने खड़े रह गये। 
        ----मंजु शर्मा
          लघुकथा - चुनाव
    " मैडम जी अब मैं काम पर नहीं आऊँगी, दोनों टाइम दीपा ही आएगी ? "
    " क्यों ? गर्भावस्था में दीपा को माँ का सहारा मिलेगा तो ये कठिन समय आराम से
     गुजर जाता ?"
    " वो तो सही है मैडम जी, मगर मेरी बहु को पसंद नहीं आ रहा , कि मैं बेटी की मदद
    करने रोज रोज आऊँ, दीपा को अपना काम खुद सम्हालना होगा, बेटा-बहु नाराज होकर
    अलग रहने चले गए तो बुढ़ापे में जब हमारे हाथ पाँव नहीं चलेंगे तब हम क्या करेंगे?
    कहाँ जायेंगें ? मैं अपनी बहु को नाराज नहीं कर सकती , नको मैडम नको।" फोन बज
    रहा था, देखा माँ थीं फोन लाइन पे,- " हेल्लो मोम, आज भाभी ने क्या बढ़िया किया ?"
      " अरे आज ना दोनों ने बहुत अच्छा, बहुत स्वादिष्ट,खाना बनाया,करेले तो बहुत बढ़ियाँ
     बने थे ,और कपड़े तो ……… "
      माँ का बहु बखान शुरू हो गया ,जिसे सुनते सुनते हमेशा चिढ़ जाने वाली मैडम आज
     बड़े ही इत्मिनान से सुन रही थीं, उनके भी दो बेटे हैं ।
                      -मंजु शर्मा
   लघुकथा -- अप्रत्याशित          
     
       सबसे छोटी बहु घर में आ गयी , फुर्सत में बैठी रजनी की बरसों पुरानी ख्वाहिश
       फिर से जोर मारने लगी तो हुक्का गुडगुडा रहे पति से कहा -
      -"-सुनो अब सब खर्चे भी निपट गये ,अब तो अपना घर पक्का करवा दो,बिलकुल …."
       पति बीच में ही बोल पड़ा ---
      " सुधीर के जैसा या उससे भी अच्छा , … हूँ ऊ अ  ! पिछले हजार बारों की तरह ही मैं
      कह रहा हूँ कि नहीं कराऊंगा नहीं कराऊंगा ,… मेरे पे उतने पैसे नहीं हैं ,… तुझे रहना
      है तो रह नहीं तो चलती बन ,  जा उसी सुधीर के यहाँ या जिसका घर अच्छा लगे…,"
      कुछ पल बैठी रहने के बाद रजनी उठ गयी , और जब कमरे से बाहर आयीं तो हाथ में
     खुद की शादी में मायके से मिला सूटकेस था---
     " इस उम्र में भी जा जा जा ,… बस बहुत हो गया…. आज मैं जा ही रही हूँ… कहाँ ?.
     …पता नहीं …". पति स्तब्ध बैठा दरवाजे के पल्लों को हिलते डुलते देखता रह गया।
       ----मंजु शर्मा
    गीत ----   
 
     तुम आओ तो एक
     गीत लिखूं प्रीत का 
     तुम ही तो हो सुर
     मेरे प्रणय गीत का
     तुम आओ तो एक
     गीत लिखूं प्रीत का ……।
  
     मेरे दिल में धडकनें हैं
     धडकनों में तुम रहते हो
     तुम से है जिन्दगानी ….
     धडकनों से सुर सजाऊं
     संगीत बनाऊं जीवन का
     तुम  आओ तो एक
     गीत लिखूं  ……… ।
     जीवन ज्योति जल रही
     तुम ही तो हो आभा
     इस प्रज्ज्वलित दीप की
     दीये की बाती बन जाऊं
     गीत गाऊं दीपक राग
     तुम आओ तो एक
     गीत लिखूं  ……….
     -----मंजु शर्मा

Sunday 13 October 2013

  गीत -----

     सुन मुरली की धुन
     चंचल हुए नयन      इधर उधर निहारूं
     चित हुआ बैचेन
     स्पर्श मंद मंद बयार का
     देवे सन्देश
     आ रहा कान्हा,
     बढे हृदय की धड़कन।
     …………
     सुन मुरली की धुन  ,
     चंचल हुए नयन …….
     इधर उधर निहारूं ,
     चित हुआ बैचेन। …
     बैठे मुंडेर पंछी ,
    लगे गाने गीत
    तरुवर भी झूम झूम
     देवे संगत।
      … ……….
    सुन मुरली की धुन
    चंचल हुए नयन  
     इधर उधर निहारूं
     चित हुआ बैचेन
     भौरें फूलों संग,
    मधुर मधुर गुनगुनाएं
    भीग गयो अंतस मेरा
     पा के तेरा सन्देश।
    ………….
    सुन मुरली की धुन ,
    चंचल हुए नयन …
    इधर उधर निहारूं ,
    चित हुआ बैचेन …
    मुझ में तू ,तुझ में मैं
    फिर भी न माने
    जिया देखे तुझ बिन
    ऐसी ही अपनी प्रीत।
    ………….
    सुन मुरली की धुन
     चंचल हुए नयन
     इधर उधर निहारूं
     चित हुआ बैचेन …।
     -------मंजु शर्मा
                         कविता ----  सफ़र
                                                                      
                                          
                        यूँ मुझे तो, आज भी याद है ,
                        हमारी वो पहली मुलाकात
                        तेरा झिझकना,सहम कर
                        नजरों से छूना,आहिस्ता से चूमना
                        मेरा शरमा कर,अपने आप
                        में सिमटते जाना
                        वो कुछ पल थे ,सब गवाह थे
                        रास्ता एक अब राही दो थे
                        हजारों ख्वाहिशें ,कुछ तेरी कुछ मेरी
                        हम दोनों की हमसफ़र थीं
                        ख़्वाब तेरे कुछ और मेरे कुछ और ,
                        सर्वथा .... जुदा जुदा थे
                        सांसों की लय वही है
                        खुशबु .. और ..धड़कन बदल गयीं
                        रिश्ते वही , .....चेहरे वही
                        परस्पर नज़रें फिर गयीं
                        सुबहो शाम और हमराही वही थे
                        मगर मंजिलें बदल गयीं
                        राहें वहीं,राही वहीं ,थे
                        दोनों की मंजिलें भटक गयीं
                         यूँ तो अब भी हैं हमसफ़र
                         दरमियान ...अजनबियत पसर गयी
                          चल कुछ ऐसा करें अब  ,......
                          कि रास्ता बदल  लेते हैं
                          जो था कभी,.....
                           वो वास्ता बदल लेते हैं
                           ----मंजु शर्मा

  कविता --प्याज पुराण

    हाय रे दिल को मथ रहे थे ,महीने चार
    मेरे बजट से नदारद हो गयी प्याज चार
    मेरे एक पति और बच्चे हैं चार
    पहले दिन भर में लगती थी प्याज चार।
   
    महंगाई ने मारे थप्पड़ पहले दो फिर चार
    दिन से हफ्ते में कीं, भोजन में प्याज चार
    पति और बच्चे हर खाने पे बातें सुनाएँ चार
    तब मन ही मन मैं आँसु बहाऊं चार।
   
    एक दिन की कहानी सुन लोगों चार
    बिटिया देखने आ गए घर में मेहमान चार
    चिंतित हुई ,रसोई में थी सब्जी केवल चार
    डब्बों में भी पड़े थे मुई दाल के दाने चार।
   
    एक तारीख को लायी थी दालें और प्याज चार
    आज तारीख तीस,बचा है आटा सिर्फ कटोरी चार
    कैसे भरूँ पेट सबका सर पे बैठे मेहमान चार
    बात समधियों की थी बिरादरी में बातें बनती चार।
   
    जोर दिया बहुत तो दिमाग में आयीं युक्तियाँ  चार
    दायें-बाएं,ऊपर-नीचे अन्तरंग पड़ौसी थे मेरे चार
    बड़े बेरहम निकले जब मैंने मांगी उनसे प्याज चार
    नसीब फूटे थे मेरे,  माथे मारे अपने मैनें हाथ चार।
   
    ड्राइंग रूम में शमाँ बंधा था टोपिक थे चार
    पति और बेटों को भेजा मारकेट लाने प्याज चार
    सब्जी मंडी में खुलीं थी दुकाने मात्र चार
    एक ठेले पे नज़र आयें नग प्याज के चार।  
   
    हज़ार गुल खिले ,जब आँखें हुई प्याज से चार
    तपाक से लपके ,कदम बढ़ाये लम्बे लम्बे चार
    पति होठों में बुदबुदाये,मुश्किल से निकले शब्द चार
    कितने की देगा भाई ये  दुर्लभ प्याज चार।
   
    दुकानदर ने घूरा ,ऊपर से नीचे नज़रें दौड़ाई बार चार
    पोशाक पे हिकारत से द्रष्टि गड़ाई ,और ताने मारे चार
    कहा अपनी औकात देख कैसे लाया ख्याल प्याज के चार
    वैसे ये तो डुप्लीकेट हैं आकर्षित करने को ग्राहक चार।
   
    घंटों भटके पतिदेव जी उन्हें याद आगये पूर्वज चार
    एक बेटा भी आ गया ,  लगा के घंटे चार
    दो बेटे थे थोड़ा सयाने,ढूँढ़ निकाले प्याज के ठेले चार
    दोनों ने दो-दो प्याज खरीदीं, और उठा के रख लीं चार।
   
    दुकानदारों को कुछ खटका हुई जब ठेलो से नज़रें चार
    लिए हैं दो के पैसे और कम हैं प्याज चार
    बेटे भागे सरपट बढ़ के वहां से हाथ चार
    बौखलाए दुकानदारों की लपकली फेंक के मारी हुई प्याज चार।
   
    जंग जीत कर आये थे  दोनों की बलैयाँ लीं चार
    व्यंजनों में दो डालीं ,तारीफ सबसे सुनीं चार
    दो सगुन में दे डालीं,अरदास सुनीं सम्धियों से चार
    दहेज़ में कुछ भी न दो लेकिन प्याज देना दढी चार।
   
    रिश्ता पक्का हुआ ख़ुशी से फूली छाती इंच चार
    प्याज जुटाने को पेशानियों में सबकी बल पड़ गए चार
    जी पी एफ से लोन लिया ,कम पड़ गए लाख चार
    मदद करने को रिश्तेदारों ने भी न कीं  नज़रें चार।
   
    मीडिया अख़बारों से लगायी गुहार आये मदद को लोग चार
    बिटिया की शादी संपन्न हुई ,नदियाँ नहाये चार
    दुःख बयाँ करने बुलाई गोष्ठी, आये देश के स्तम्भ चार
    आह दिलों से निकल रही थी तरसे दर्शन को प्याज चार।
   
    छिन गए , नमक-हरी मिर्च -प्याज संग रोटी के निवाले चार
    सुख से जीना है बंधु दिन जिन्दगी के चार
    तो भूल जाओ प्याज, सुन लो महंगाई के अल्टीमेटम चार
    तरस मत खाने को प्याज लेने होंगे जनम सिर्फ चार।
    ----- मंजु शर्मा
मुक्तक -----
                समस्त भाषाओँ की सिरमौर है प्यारी भाषा हिंदी
                  वतन की विभिन्न भाषाओँ की संगम है प्यारी भाषा हिंदी
                  प्रेम ,माधुर्य ,अपनत्व, ममता की अमृत कलश है इसमें
                 गर्व करो , हिन्दुस्तान के माथे की बिंदिया है भाषा हिंदी
                  ------मंजु शर्मा 
  मुक्तक ---
        दोस्त बने थे हम बड़े अरमानों से
        निभायी हमने भी बड़ी वफ़ा से
        ना कारण बताया,ना रौष जताया
        वे गुल हो गए हमारी जिन्दगी से
        ----मंजु शर्मा
   मुक्तक ---
        ज़माने बाद तुम फिर नज़र आने लगे
        टूटे दिल की धड़कने फिर बढ़ाने लगे
        सुर ताल खो गये थे जिन्दगी के
        गुनगुनाने को गीत लब फिर मचलने लगे
        ----मंजु शर्मा
      मुक्तक ---
         इस जिन्दगी का तो इतना सा फ़साना है
         चाही खुशियों और अनचाहे ग़मों का तराना है
         मत ठहरों देख हथेली पे उकरीं हुयी इबारतें
         खुद की तदबीर और तकदीर खुदायी नज़राना है
              -----मंजु शर्मा
   मुक्तक ---
   जिन्दगी में यादें हैं ,यादों में है जिन्दगी
   नयनों में सपनें है ,सपनों से है जिन्दगी
   रिश्तों के लय-ताल बनाये , जिन्दगी का संगीत
   जिन्दगी में इंसानियत पूजा है ,पूजा में है जिन्दगी
   ---मंजु शर्मा
  मंजर उस रात का था ,राज तुम्हारे साथ का है
  सफ़र श्यामल आसमान का था ,राज क्षितिज के पार का है
  घटायें रिमझिम बरस रहीं थी , तन्हाई तरन्नुम में गा रही थी
  काइनात मुस्कुरा रही थीं , एहसास तुम्हारे साथ का है
  -----मंजु शर्मा
  मुक्तक ----
         फलक पर ऐ वतन तेरा नाम, धूमिल ना होने पाए
        वतन परस्ती भूले नेताओं से ,कोई गद्दारी ना होने पाए
        हम मर मिटते हैं मारते हुए, दुश्मनों को जब जब
        माँ लबों पर तेरे जय हिन्द हो, कोई दुखी ना होने पाए
      ----मंजु शर्मा
 मुक्तक ----
 बुझते हुए चिरागों को , जां-ए- रौशनी मिल जाये

खाक हुए अरमानों को ,तेज रवानगी मिल जाये

थरथराते अधरों को जो, तुम लबों से थाम लो

  रौशन करे दिल को ,सुकून रूहानी मिल जाए

-----मंजु शर्मा
  
     मुक्तक ----
                 अश्कों का समुन्दर है ,आशाओं की लहरें हैं,
                 ख्वाहिशों की कश्तियाँ हैं,चट्टानों से इरादे हैं,
                 अंधेरों उजालों से जंग की,प्यास अनवरत जारी रख
                 मोहब्बत की पतवार से, किस्से जीत के लिखने हैं
                 ----मंजु शर्मा
     मुक्तक ------
               चाँद जमीं पर उतर आया , झील में समाने को आतुर है

                तारे सवार हो चाँदनी पर , जल-क्रीड़ा करने में मगन हैं
                सुन माँझी सखा इन्हें बना ,आलिंगनबद्ध करलें जरा
                कश्ती को रफ़्तार दे दो तुम ,आसमां पे आशियाने बसाने है
                ----मंजु शर्मा   

   
  मुक्तक ----
        पूर्णिमा का चाँद फिर आ गया आसमां में , लग गया  झिलमिल तारों का मेला
        रजनीगंधा खिल उठे फिर मन-मंदिर में  , हो गया सुवासित सांसों का रेला
        स्पर्श तेरी मतवाली चाहतों का , अरमान मचल उठे भीगी हुयी सी रात में

        चाँदनी अठखेलियाँ करे बदन से मेरे, कायनात गा उठी लिए जज्बातों का रेला
         ----मंजु शर्मा
    
    Inline image 1
  मुक्तक -----
                    चाँद ने बादलों का घूँघट खोला ,चाँदनी खिलखिलाने लगी
                    निशा ने बोझिल पलकें मूँदीं ,रविकिरण अम्बर-पनघट भिगोने लगीं
                    समीर ने ली मादक अंगड़ाई …,पंछियों ने मिलायी मीठी तान
                    अलसायी कलियाँ जो मुस्कुरायीं, सुप्त धरा खिलखिलाने लगीं
                    ----मंजु शर्मा


                Inline image 1

  
मुक्तक ----
मुझमें नारहे कोई विकार , ऐ माँ जगदम्बे ऐसा वर दो
व्याप्त जो मुझमें अँधियारा , मिट जाए वो माँ ऐसा वर दो
तू ही जगज्जननी , है तू ही जग संहारक ,पाप विनाशक,मोक्षदायनी
तन, मन ,वाणी ना हो कभी विकृत ,ऐ माँ जगदम्बे ऐसा वर दो

--Inline image 1--मंजु शर्मा

Thursday 18 July 2013

kavita-nadi

                        
नदी

हिमशिखरों पे जमीं बर्फ
जब चूमी धूप ने,...वो पिघली
बनके नीर ...चंचला ..अकुलाई
और चल पड़ी वेगवती धारा।

राह में खड़े थे छिछोरे ,शोहदे
बन के बाधाएं और अड़चने
कुछ छोटें कुछ बड़े पत्थर
और कुछ चट्टानें कुछ अडिग पर्वत।

चलते चलते रूपसी नन्हीं धारा
ठिठकती ,सहमती, होले होले चलती
रूकती ,धीरे से मुड़ती ,फिर मचलती
और दौड़ती अपने साजन सागर की ओर।

वो मदहोश कुंआरी कन्या सी धुन की पक्की
आलिंगनबध कर लेने को आतुर
खड़े पग पग पे उसके आशिक
और कोई बन सका उसका हमसफ़र।

उसका वेग कोई सह पाता
कोई उछल के परे हो जाता
कुछ टकरा के टूटते ...बिखरते जाते
और कुछ, कुछ कदम साथ चल देते।

लिये प्रियतम से मिलने की आस
दौड़ते दौड़ते बन गयी वो नवयौवना
सीने में उसके जनम जनम की प्यास
और सागर भी अपने उर में समाने को व्याकुल

मदहोश ,अपनी ही मस्ती में चूर बौराई सी
कभी सुनहरी ,कभी रुपहली ,कभी नीली कभी पीली
रंग बदल बदल कर चुनरिया ओढती वो बाला
और बढ़ी जा रही थी टेढ़े मेढे पथ पर अनवरत।

मनुष्य ,धरा का सर्वश्रेष्ठ प्राणी उसे सताने लगा
मैली करता अपनी करतूतों की गंदगी डाल
उज्जवल धवल पाकीजा , नदी सह नयी पाई
और अब कुम्लाहने सिमटने लगी खिलवाड़ से

युगों युगों से उसका सफ़र यूँ ही था जारी
नाजुक सुन्दर कन्या सी नदी
दुःख से सिकुड़कर नाला सी बन गयी
और प्रतीक्षारत है किसी तारणहार की।

-मंजु शर्मा
 

  ग़ज़ल -बहारों ने चमन को तो


        बहारों ने चमन को तो सदा मुस्कराहट दी है
         हमसे कतरा के निकल जाना इसकी फितरत है

                     खिले फूलों की खुशबुओं ने जग को महकाया है
                     हम तक पहुँचे कि,पतझड़ ने हमारा दामन थामा है

         चाँद आस्मां से रौशनी बिखेर के दुनियाँ को नहलाता है
        हमें छूने से पहले ही , गुम हो जाना रौशनी की आदत है

                     हवाएँ जो जीवन की धुन बजाती ,मधुर - मधुर स्वरों में गाती - नाचती है
                     हमें सहलाने से पहले ही, अक्सर धुँधली फिजाओं में रम जाती है

         ज्यों हर दिन सूरज का निकल के ,हौले हौले सफ़र करना जरुरी है,
         जिन्दा रहने के लिए हमसफ़र, किसी हमदम का होना भी तो जरुरी है

                      ख्वाहिशों के पँख लगा ,जब भी स्व्पनलोक में विचारना चाहा
                      ख्वाबों के बुनने से पहले ही ,चाहतें सब टूट के बिखर जाती हैं।
                              
                                                         -  मंजु शर्मा

   
  
              

छोटी कविता -तुम्हारा अक्षरों में

             तुम्हारा अक्षरों में
             पैगाम बन,
              मुझ तक पहुँचना
              स्वप्निल आसमां में,
               नक्षत्रों का मौन बुलावा ही तो था
               हर्दयलोक मेरा आलोकित कर
               तुम्हारा कोरी चिट्ठी भेजना
               मेरे अरमानों पे स्याह उड़ेल,
               सच से रिश्ता बनवाना ही तो था.
                              
            -  मंजु शर्मा