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Monday 28 October 2013

    ----मुक्तक
    पहुँच से क्षितिज दूर ही सही, छूना ख़्वाब सबका तो है
    अँधेरे की चादर बड़ी ही सही , पार उसके उजाला तो है
    नाता स्याह सफ़ेद पलों सा है , उनसे मेरी जिन्दगी का

    मुलाकात के पल छोटे ही सही ,यादों का कीमती पिटारा तो है
    ----मंजु शर्मा
    २- मुक्तक ----
    अँधेरे भी रास आते है , गम सारे ये छुपा लेता है
    दुःख भी सीने से लगा लेते है , छोटी ख़ुशी को बड़ा बना देता है
    छाँटने के लिए वक्त नहीं ,ये जीवन छोटा लगता है
     नफरत भी उसकी प्रिय  है , उस से नाता जोड़े रखता है
 ----मंजु शर्मा
मुक्तक -----
        बुझते हुए चिरागों को भी ,फितरत है समेट लेना मेरी
        आँचल की छाँव दे के , आँधियों से बचाना आदत है मेरी
        गिरते हुओं को सहारा दे सकूँ , इतनी शक्ति दे दो मुझको
        जीत जाऊं सदा लड़ अंधेरों से, बस इतनी इल्तजा है मेरी
           ---मंजु शर्मा

       लघुकथा ---करवाचौथ



राधिका की पहली करवाचौथ और ऑफिस का महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट सबमिट करने की
आखिरी तारीख एक ही दिन में थी। वो फटाफट पति को नाश्ता खिला कर और एक खाने
का डिब्बा उसे दिया और दूसरा अपने बैग में रख कर बस स्टॉप की और निकल ली।
ऑफिस में ही रात हो गयी चाँद निकल आया था ,और काम भी समाप्ति की ओर था।
राधिका ने बिसलेरी की बोतल से चाँद को पानी दिया ,गणेश भगवान को स्मरण कर पति
की लम्बी आयु की प्रार्थना की और एक दुकड़ा पूरी-सब्जी की बाहर चिड़ियों के लिए रख आई
और खाना समाप्त कर पुन:काम करने लगी। सहयोगी मनोज बोला -
" अरे राधिका जी आपने यहीं पर करवाचौथ का व्रत खोल लिया ,"
"हाँ ,तो ?"
"आपने पति की आरती नहीं उतारी ,ना ही उनके पैर छू कर उनका आशीर्वाद लिया ,"
" हाँ s s मुझे इन सबकी जरुरत महसूस नहीं होती , अरे जिसकी लम्बी आयु की प्रार्थना
हम औरतें भगवान् से करतीं हैं ,वो अपनी ही लम्बी आयु का आशीर्वाद कैसे दे सकता है ?
मैं तो भगवान् के ही पैर छूतीं हूँ और भगवान् से ही अपने प्रिय की अच्छी सेहत और लम्बी
उम्र की प्रार्थना करती हूँ।" मनोज को मर्दों के कमजोर और असहाय होने एहसास होने लगा
उसने निश्च्य किया की वो अपनी पत्नी से करवाचौथ के दिन तो अपने पैर नहीं छुआएगा ।



-----मंजु शर्मा

Thursday 17 October 2013

    लघुकथा -- शर्मिंदा
       
          छोटी -छोटी लगभग सात -आठ बरस की दो बच्चियां आयीं और डोरबेल दबायी ,
      मि.सिंह ने दरवाजा खोलकर उन बच्चियों देखा -" कहो बच्चों क्या चाहिए "
      " अंकल हम स्कूल की तरफ से लड़कियों की मदद के लिए बनी संस्था के लिए
      डोनेशन लेने के लिए आयीं है " , हूँ मि.सिंह ने उनसे पेपर लेकर देखे और उन्हें
      अन्दर आकर बैठने के लिए कहा । भीतर की तरफ चले गए , वे पैसे लेकर आये
      बच्चियों को बाहर ही खड़ा देखा, पैसे देकर पेपर पे साईन करते हुए स्नेह से कहा -
        " अरे बच्चों तुम लोग अन्दर आकर नहीं बैठे, बहुत गर्मी है पानी पियोगी ?"-
        "नो नो दादा जी , हम किसी के भी घर में अन्दर अकेली नहीं जातीं " ,
       " क्यों बेटा "
        " दादा जी मम्मी ने मना किया हुआ है "
       " वो क्यों भला "
        "  आजकल रेप बहुत होने लगे है ना " बच्चियों ने तपाक से कहा ,अवाक् रह गए
        मि.सिंह मानो समस्त मर्द जात को छोटी बच्चियों ने नंगा कर दिया हो,
         " थैंक्यू दादा जी " कह कर वे जल्दी से चलती बनी और मि.सिंह शर्मिंदगी और
        अपराधबोध के तले दबे बुत बने खड़े रह गये। 
        ----मंजु शर्मा
          लघुकथा - चुनाव
    " मैडम जी अब मैं काम पर नहीं आऊँगी, दोनों टाइम दीपा ही आएगी ? "
    " क्यों ? गर्भावस्था में दीपा को माँ का सहारा मिलेगा तो ये कठिन समय आराम से
     गुजर जाता ?"
    " वो तो सही है मैडम जी, मगर मेरी बहु को पसंद नहीं आ रहा , कि मैं बेटी की मदद
    करने रोज रोज आऊँ, दीपा को अपना काम खुद सम्हालना होगा, बेटा-बहु नाराज होकर
    अलग रहने चले गए तो बुढ़ापे में जब हमारे हाथ पाँव नहीं चलेंगे तब हम क्या करेंगे?
    कहाँ जायेंगें ? मैं अपनी बहु को नाराज नहीं कर सकती , नको मैडम नको।" फोन बज
    रहा था, देखा माँ थीं फोन लाइन पे,- " हेल्लो मोम, आज भाभी ने क्या बढ़िया किया ?"
      " अरे आज ना दोनों ने बहुत अच्छा, बहुत स्वादिष्ट,खाना बनाया,करेले तो बहुत बढ़ियाँ
     बने थे ,और कपड़े तो ……… "
      माँ का बहु बखान शुरू हो गया ,जिसे सुनते सुनते हमेशा चिढ़ जाने वाली मैडम आज
     बड़े ही इत्मिनान से सुन रही थीं, उनके भी दो बेटे हैं ।
                      -मंजु शर्मा
   लघुकथा -- अप्रत्याशित          
     
       सबसे छोटी बहु घर में आ गयी , फुर्सत में बैठी रजनी की बरसों पुरानी ख्वाहिश
       फिर से जोर मारने लगी तो हुक्का गुडगुडा रहे पति से कहा -
      -"-सुनो अब सब खर्चे भी निपट गये ,अब तो अपना घर पक्का करवा दो,बिलकुल …."
       पति बीच में ही बोल पड़ा ---
      " सुधीर के जैसा या उससे भी अच्छा , … हूँ ऊ अ  ! पिछले हजार बारों की तरह ही मैं
      कह रहा हूँ कि नहीं कराऊंगा नहीं कराऊंगा ,… मेरे पे उतने पैसे नहीं हैं ,… तुझे रहना
      है तो रह नहीं तो चलती बन ,  जा उसी सुधीर के यहाँ या जिसका घर अच्छा लगे…,"
      कुछ पल बैठी रहने के बाद रजनी उठ गयी , और जब कमरे से बाहर आयीं तो हाथ में
     खुद की शादी में मायके से मिला सूटकेस था---
     " इस उम्र में भी जा जा जा ,… बस बहुत हो गया…. आज मैं जा ही रही हूँ… कहाँ ?.
     …पता नहीं …". पति स्तब्ध बैठा दरवाजे के पल्लों को हिलते डुलते देखता रह गया।
       ----मंजु शर्मा
    गीत ----   
 
     तुम आओ तो एक
     गीत लिखूं प्रीत का 
     तुम ही तो हो सुर
     मेरे प्रणय गीत का
     तुम आओ तो एक
     गीत लिखूं प्रीत का ……।
  
     मेरे दिल में धडकनें हैं
     धडकनों में तुम रहते हो
     तुम से है जिन्दगानी ….
     धडकनों से सुर सजाऊं
     संगीत बनाऊं जीवन का
     तुम  आओ तो एक
     गीत लिखूं  ……… ।
     जीवन ज्योति जल रही
     तुम ही तो हो आभा
     इस प्रज्ज्वलित दीप की
     दीये की बाती बन जाऊं
     गीत गाऊं दीपक राग
     तुम आओ तो एक
     गीत लिखूं  ……….
     -----मंजु शर्मा

Sunday 13 October 2013

  गीत -----

     सुन मुरली की धुन
     चंचल हुए नयन      इधर उधर निहारूं
     चित हुआ बैचेन
     स्पर्श मंद मंद बयार का
     देवे सन्देश
     आ रहा कान्हा,
     बढे हृदय की धड़कन।
     …………
     सुन मुरली की धुन  ,
     चंचल हुए नयन …….
     इधर उधर निहारूं ,
     चित हुआ बैचेन। …
     बैठे मुंडेर पंछी ,
    लगे गाने गीत
    तरुवर भी झूम झूम
     देवे संगत।
      … ……….
    सुन मुरली की धुन
    चंचल हुए नयन  
     इधर उधर निहारूं
     चित हुआ बैचेन
     भौरें फूलों संग,
    मधुर मधुर गुनगुनाएं
    भीग गयो अंतस मेरा
     पा के तेरा सन्देश।
    ………….
    सुन मुरली की धुन ,
    चंचल हुए नयन …
    इधर उधर निहारूं ,
    चित हुआ बैचेन …
    मुझ में तू ,तुझ में मैं
    फिर भी न माने
    जिया देखे तुझ बिन
    ऐसी ही अपनी प्रीत।
    ………….
    सुन मुरली की धुन
     चंचल हुए नयन
     इधर उधर निहारूं
     चित हुआ बैचेन …।
     -------मंजु शर्मा
                         कविता ----  सफ़र
                                                                      
                                          
                        यूँ मुझे तो, आज भी याद है ,
                        हमारी वो पहली मुलाकात
                        तेरा झिझकना,सहम कर
                        नजरों से छूना,आहिस्ता से चूमना
                        मेरा शरमा कर,अपने आप
                        में सिमटते जाना
                        वो कुछ पल थे ,सब गवाह थे
                        रास्ता एक अब राही दो थे
                        हजारों ख्वाहिशें ,कुछ तेरी कुछ मेरी
                        हम दोनों की हमसफ़र थीं
                        ख़्वाब तेरे कुछ और मेरे कुछ और ,
                        सर्वथा .... जुदा जुदा थे
                        सांसों की लय वही है
                        खुशबु .. और ..धड़कन बदल गयीं
                        रिश्ते वही , .....चेहरे वही
                        परस्पर नज़रें फिर गयीं
                        सुबहो शाम और हमराही वही थे
                        मगर मंजिलें बदल गयीं
                        राहें वहीं,राही वहीं ,थे
                        दोनों की मंजिलें भटक गयीं
                         यूँ तो अब भी हैं हमसफ़र
                         दरमियान ...अजनबियत पसर गयी
                          चल कुछ ऐसा करें अब  ,......
                          कि रास्ता बदल  लेते हैं
                          जो था कभी,.....
                           वो वास्ता बदल लेते हैं
                           ----मंजु शर्मा

  कविता --प्याज पुराण

    हाय रे दिल को मथ रहे थे ,महीने चार
    मेरे बजट से नदारद हो गयी प्याज चार
    मेरे एक पति और बच्चे हैं चार
    पहले दिन भर में लगती थी प्याज चार।
   
    महंगाई ने मारे थप्पड़ पहले दो फिर चार
    दिन से हफ्ते में कीं, भोजन में प्याज चार
    पति और बच्चे हर खाने पे बातें सुनाएँ चार
    तब मन ही मन मैं आँसु बहाऊं चार।
   
    एक दिन की कहानी सुन लोगों चार
    बिटिया देखने आ गए घर में मेहमान चार
    चिंतित हुई ,रसोई में थी सब्जी केवल चार
    डब्बों में भी पड़े थे मुई दाल के दाने चार।
   
    एक तारीख को लायी थी दालें और प्याज चार
    आज तारीख तीस,बचा है आटा सिर्फ कटोरी चार
    कैसे भरूँ पेट सबका सर पे बैठे मेहमान चार
    बात समधियों की थी बिरादरी में बातें बनती चार।
   
    जोर दिया बहुत तो दिमाग में आयीं युक्तियाँ  चार
    दायें-बाएं,ऊपर-नीचे अन्तरंग पड़ौसी थे मेरे चार
    बड़े बेरहम निकले जब मैंने मांगी उनसे प्याज चार
    नसीब फूटे थे मेरे,  माथे मारे अपने मैनें हाथ चार।
   
    ड्राइंग रूम में शमाँ बंधा था टोपिक थे चार
    पति और बेटों को भेजा मारकेट लाने प्याज चार
    सब्जी मंडी में खुलीं थी दुकाने मात्र चार
    एक ठेले पे नज़र आयें नग प्याज के चार।  
   
    हज़ार गुल खिले ,जब आँखें हुई प्याज से चार
    तपाक से लपके ,कदम बढ़ाये लम्बे लम्बे चार
    पति होठों में बुदबुदाये,मुश्किल से निकले शब्द चार
    कितने की देगा भाई ये  दुर्लभ प्याज चार।
   
    दुकानदर ने घूरा ,ऊपर से नीचे नज़रें दौड़ाई बार चार
    पोशाक पे हिकारत से द्रष्टि गड़ाई ,और ताने मारे चार
    कहा अपनी औकात देख कैसे लाया ख्याल प्याज के चार
    वैसे ये तो डुप्लीकेट हैं आकर्षित करने को ग्राहक चार।
   
    घंटों भटके पतिदेव जी उन्हें याद आगये पूर्वज चार
    एक बेटा भी आ गया ,  लगा के घंटे चार
    दो बेटे थे थोड़ा सयाने,ढूँढ़ निकाले प्याज के ठेले चार
    दोनों ने दो-दो प्याज खरीदीं, और उठा के रख लीं चार।
   
    दुकानदारों को कुछ खटका हुई जब ठेलो से नज़रें चार
    लिए हैं दो के पैसे और कम हैं प्याज चार
    बेटे भागे सरपट बढ़ के वहां से हाथ चार
    बौखलाए दुकानदारों की लपकली फेंक के मारी हुई प्याज चार।
   
    जंग जीत कर आये थे  दोनों की बलैयाँ लीं चार
    व्यंजनों में दो डालीं ,तारीफ सबसे सुनीं चार
    दो सगुन में दे डालीं,अरदास सुनीं सम्धियों से चार
    दहेज़ में कुछ भी न दो लेकिन प्याज देना दढी चार।
   
    रिश्ता पक्का हुआ ख़ुशी से फूली छाती इंच चार
    प्याज जुटाने को पेशानियों में सबकी बल पड़ गए चार
    जी पी एफ से लोन लिया ,कम पड़ गए लाख चार
    मदद करने को रिश्तेदारों ने भी न कीं  नज़रें चार।
   
    मीडिया अख़बारों से लगायी गुहार आये मदद को लोग चार
    बिटिया की शादी संपन्न हुई ,नदियाँ नहाये चार
    दुःख बयाँ करने बुलाई गोष्ठी, आये देश के स्तम्भ चार
    आह दिलों से निकल रही थी तरसे दर्शन को प्याज चार।
   
    छिन गए , नमक-हरी मिर्च -प्याज संग रोटी के निवाले चार
    सुख से जीना है बंधु दिन जिन्दगी के चार
    तो भूल जाओ प्याज, सुन लो महंगाई के अल्टीमेटम चार
    तरस मत खाने को प्याज लेने होंगे जनम सिर्फ चार।
    ----- मंजु शर्मा
मुक्तक -----
                समस्त भाषाओँ की सिरमौर है प्यारी भाषा हिंदी
                  वतन की विभिन्न भाषाओँ की संगम है प्यारी भाषा हिंदी
                  प्रेम ,माधुर्य ,अपनत्व, ममता की अमृत कलश है इसमें
                 गर्व करो , हिन्दुस्तान के माथे की बिंदिया है भाषा हिंदी
                  ------मंजु शर्मा 
  मुक्तक ---
        दोस्त बने थे हम बड़े अरमानों से
        निभायी हमने भी बड़ी वफ़ा से
        ना कारण बताया,ना रौष जताया
        वे गुल हो गए हमारी जिन्दगी से
        ----मंजु शर्मा
   मुक्तक ---
        ज़माने बाद तुम फिर नज़र आने लगे
        टूटे दिल की धड़कने फिर बढ़ाने लगे
        सुर ताल खो गये थे जिन्दगी के
        गुनगुनाने को गीत लब फिर मचलने लगे
        ----मंजु शर्मा
      मुक्तक ---
         इस जिन्दगी का तो इतना सा फ़साना है
         चाही खुशियों और अनचाहे ग़मों का तराना है
         मत ठहरों देख हथेली पे उकरीं हुयी इबारतें
         खुद की तदबीर और तकदीर खुदायी नज़राना है
              -----मंजु शर्मा
   मुक्तक ---
   जिन्दगी में यादें हैं ,यादों में है जिन्दगी
   नयनों में सपनें है ,सपनों से है जिन्दगी
   रिश्तों के लय-ताल बनाये , जिन्दगी का संगीत
   जिन्दगी में इंसानियत पूजा है ,पूजा में है जिन्दगी
   ---मंजु शर्मा
  मंजर उस रात का था ,राज तुम्हारे साथ का है
  सफ़र श्यामल आसमान का था ,राज क्षितिज के पार का है
  घटायें रिमझिम बरस रहीं थी , तन्हाई तरन्नुम में गा रही थी
  काइनात मुस्कुरा रही थीं , एहसास तुम्हारे साथ का है
  -----मंजु शर्मा
  मुक्तक ----
         फलक पर ऐ वतन तेरा नाम, धूमिल ना होने पाए
        वतन परस्ती भूले नेताओं से ,कोई गद्दारी ना होने पाए
        हम मर मिटते हैं मारते हुए, दुश्मनों को जब जब
        माँ लबों पर तेरे जय हिन्द हो, कोई दुखी ना होने पाए
      ----मंजु शर्मा
 मुक्तक ----
 बुझते हुए चिरागों को , जां-ए- रौशनी मिल जाये

खाक हुए अरमानों को ,तेज रवानगी मिल जाये

थरथराते अधरों को जो, तुम लबों से थाम लो

  रौशन करे दिल को ,सुकून रूहानी मिल जाए

-----मंजु शर्मा
  
     मुक्तक ----
                 अश्कों का समुन्दर है ,आशाओं की लहरें हैं,
                 ख्वाहिशों की कश्तियाँ हैं,चट्टानों से इरादे हैं,
                 अंधेरों उजालों से जंग की,प्यास अनवरत जारी रख
                 मोहब्बत की पतवार से, किस्से जीत के लिखने हैं
                 ----मंजु शर्मा
     मुक्तक ------
               चाँद जमीं पर उतर आया , झील में समाने को आतुर है

                तारे सवार हो चाँदनी पर , जल-क्रीड़ा करने में मगन हैं
                सुन माँझी सखा इन्हें बना ,आलिंगनबद्ध करलें जरा
                कश्ती को रफ़्तार दे दो तुम ,आसमां पे आशियाने बसाने है
                ----मंजु शर्मा   

   
  मुक्तक ----
        पूर्णिमा का चाँद फिर आ गया आसमां में , लग गया  झिलमिल तारों का मेला
        रजनीगंधा खिल उठे फिर मन-मंदिर में  , हो गया सुवासित सांसों का रेला
        स्पर्श तेरी मतवाली चाहतों का , अरमान मचल उठे भीगी हुयी सी रात में

        चाँदनी अठखेलियाँ करे बदन से मेरे, कायनात गा उठी लिए जज्बातों का रेला
         ----मंजु शर्मा
    
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  मुक्तक -----
                    चाँद ने बादलों का घूँघट खोला ,चाँदनी खिलखिलाने लगी
                    निशा ने बोझिल पलकें मूँदीं ,रविकिरण अम्बर-पनघट भिगोने लगीं
                    समीर ने ली मादक अंगड़ाई …,पंछियों ने मिलायी मीठी तान
                    अलसायी कलियाँ जो मुस्कुरायीं, सुप्त धरा खिलखिलाने लगीं
                    ----मंजु शर्मा


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मुक्तक ----
मुझमें नारहे कोई विकार , ऐ माँ जगदम्बे ऐसा वर दो
व्याप्त जो मुझमें अँधियारा , मिट जाए वो माँ ऐसा वर दो
तू ही जगज्जननी , है तू ही जग संहारक ,पाप विनाशक,मोक्षदायनी
तन, मन ,वाणी ना हो कभी विकृत ,ऐ माँ जगदम्बे ऐसा वर दो

--Inline image 1--मंजु शर्मा