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Thursday, 7 November 2013

  लघुकथा ---- आँखें
     
           विजय और मनीषा जुहू बीच पर अपने अपने विचारों में तल्लीन बैठे थे कि
  आकथू कि आवाज आने से दोनों की तन्द्रा भंग हो गयी। मनीषा ने देखा थूक धीरे धीरे रेत में ज़ज्ब हो रहा है और उसके दिमाग में तुरंत कौंधने लगा ,वो हनीमून का समय था। अरैंज मैरिज को दस दिन हुए थे। प्यार के क्षणों में उसने पूछा था -
 "सुनो ! एक बात बताओ , मैं कैसी लग रही हूँ ?",
 " जैसी सब औरते लगती हैं " ,
 "अच्छा ,और मेरी आँखें ?"
 " तुम्हारी आँखें,अ  ……  जैसे किसी ने रेत्ते में थूक दिया हो ऐसी.…  " मनीषा सुन कर अवाक् रह गयी थी, अपनी आँखों के लिए इस विचित्र उपमा को पाकर उसकी आँखों में अपमान और दुःख से आँसु भर आये थे वो एक दम बुझ सी गयी थी।  वो जब भी "आक्थू " का स्वर सुनती तो उसके मन में नए नवेले पति की दी हुयी वो विचित्र उपमा कौंध जाती और वो सोचती जब थूक रेत में गिरता है तब जैसी, या जज़्ब हो रहा होता है, तब जैसी, अथवा जब जज़्ब हो चुका होता है तब के जैसी है मेरी आँखें? बीस साल से इसी सवाल से अक्सर उलझती रहती थी।
    " चलिए जी अब रात होने लगी है , सुबह हॉस्पिटल के लिए जल्दी निकलना होगा।"
  " आँखों का डोनर मिल गया ? "
   " हांजी " ,खुश होते हुए विजय बोला -
   "अरे वाह महीनों बाद डोनर मिला है ,अच्छा कौन है वो फरिश्ता ? "
    " वो और कोई नहीं ,मैं ही अपनी एक आँख दे रही हूँ ",
   "क्या …? तुम ?  क्यों ... ?"
    " पिछली  जैसी मनहूस दिवाली किसी की जिंदगी में ना आये जिसने तुम्हारी आँखें छीन लीं थी,…  साल भर से किसी डोनर का इन्तजार करते करते मैं भी थक गयी हूँ, तुम्हें इस हालत में और नहीं देख सकती, अब मैं ही तुम्हें अपनी एक आँख  दूंगी  … चलेगी रेत्ते में थूकने जैसी मेरी आँखे " ?
     -----मंजु शर्मा

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