लघुकथा - फेसबुक
दिपावली की स्याह काली रात तारों की छाँव और बिजली कि जलती बुझती रौशनी से
टक्कर लेती हुयी आहिस्ता आहिस्ता गुजरती जा रही थी। रात के तीन बज चुके
थे।पटाखों का शौर थम चुका था ,यदा-कदा एकाध आवाज से रात की नीरवता भंग हो
जाती थी। मनीषा ने गर्दन घुमा कर देखा ,दो सालों से डिप्रेस्ड चल रहे पति
दीवार ताकते-ताकते सो गए थे। दोनों बच्चे टीवी देखकर और फेस बुक पे नेट
सर्फिंग करते थक कर सो गए थे। डिप्रेस्ड पति का ईलाज कराते और उन्हें
सम्हालते सम्हालते थक कर वो स्वयं कुंठाओं में घिरने लगी थी। दिपावली कि
चहल-पहल भी घर में छायी उदासी और मनहूसियत दूर नहीं कर सकी तो, मनीषा
लैपटॉप खोलकर बैठ गयी, विचलित हो रहे ह्रदय के भावों को कहानी,लेखों और
कविता में उड़ेला और विभिन्न ग्रुप्स में पोस्ट कर खुद को हल्का महसूस कर
अपनी खीज़ व कुंठाओं को तिरोहित कर खुद का मानसिक संतुलन खोने से बचा लिया
और फिर अपने जीवन के साथी बन चुके "फेसबुक" पर मुक्त और खुश मिजाजी से
फेसबुकिया मित्रों को दिपावली की शुभकामनायें पोस्ट करने लगी।
----मंजु शर्मा
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