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Saturday 23 November 2013

लघुकथा----समानता
आठ दिन पहले ही काम पर लगी कमला आते ही बिना मांगे अपने
देर से आने की सफाई बर्तन धोते हुए देने लगी ----
-" मैडम जी तेरह नम्बर में मेरी बहन काम करती है ,उसे आज सुबह ही फीट
आ गया,तो मुझे ही उसका काम करने जाना पड़ा , इसीलिए देर हो गयी " ,
"अरे ! तो डॉक्टर को दिखाया ? "
" कहाँ मैडम जी , उसका आदमी ले जाता ही नहीं ,खुद काम धंधा करता नहीं
है , तो डॉक्टर से इलाज के पैसे कहाँ से आयेंगे ,छोटे छोटे दो बच्चे हैं उसके ,
खाने को ही पूरा नहीं पड़ता, बहन साहब लोगों से कह सुन कर काम लगवाती
भी है तो हरामी काम करता ही नहीं ,छोड़ कर भाग आता है ,दिन भर पड़ा
हुआ टीवी देखता रहता है,या खटिया तोड़ता है ,और … जब मन होता है
बहन से पैसे छीन झपट कर शराब पीने चला जाता है मरदुआ, बहन चिंता
के मारे सोचते ही बैठी रहती है सोच-सोच कर ही उसे फिट आने लगे हैं। "
तीन चार दिन बाद ही वो आते ही शुरू हो गयी ---
" मैडम जी आज बहन को फिर से फिट आया है ,भाई आकर उसे और उसके
बच्चों को ले गया है , बहनोई को छोड़ दिया कि तू अपना अपने आप देख,
बहन का इलाज कराएँगे,...मैडम साहब छः-सात दिनों से घर पर ही हैं ? …"
बेडरूम की तरफ देखते हुए मिसेज़ सिंह ने कुछ शर्मिंदगी से कहा ---
" हाँ तबियत ठीक नहीं है साहब की " ,, साहब के रोज -रोज छुट्टी लेकर घर
पड़े रहने से परेशान मैडम को अपने और कमला की बहन में कुछ अंतर नज़र
नहीं आ रहा था।
-----मंजु शर्मा
कविता ---मैं भावनाओं की……।

मैं भावनाओं की
बहती नदी
वेगवती निरंतर प्रवाहमान
किस्सों में ढलती
कहानियों में पलती
कविताओं में बहती
मैं भावनाओं की
बहती नदी …
नियमों के तटबंध
ना रोक सकें
मन की गतिशीलता
उसूलों कि चट्टानें
न बांध सकें
भावनाओं के प्रवाह
की निरंतरता
मैं भावनाओं की
बहती नदी
अम्बर में बिखरे
चाँद सितारे
बागों में खिलते
फूल बहुतेरे
कलरव करते पंछी
मुक्त विचरते
उपवन में प्राणी
उर में जगाते
निरन्तर भाव
मैं भावनाओं की
बहती नदी
रिमझिम रिमझिम बरसता
असमान से पानी
पीइ.. कांआ…पीइ....कांआ पुकारते
प्यासे चकोर
सुन्दर पँख फैलाये
नृत्यरत मोर
भावनाओं को
अलंकृत करते शब्दों से
शब्द कविताओं में
ढलते जाते …
बहते जाते .... बहते जाते
मैं भावनाओं की
बहती नदी
वेगवती निरन्तर प्रवाहमान
मैं भावनाओं की
बहती नदी ……
मैं भावनाओं की
बहती नदी …।
----मंजु शर्मा

Sunday 17 November 2013

मुक्तक ---
रिश्तों पे छाई कालिमा पिघले तो ,कुछ पन्ने रंगूँ सर्द रातों में
जज्बातों पे जमी बर्फ पिघले तो ,कुछ सपने बुना करूँ सर्द रातों में
स्याह अँधेरों में विलीन हो जाने से पहले ,आकर थाम लो मुझे

मेरी बहकी सांसों को सँवारले तो , कुछ सर्जित करूँ सर्द रातों में
----मंजु शर्मा
उग आये सौ सूरज ,जब लब पे तेरा नाम आया
दूर हुए तम अंतस के ,जब दिल में तेरा नाम आया
हर प्राणी कण कण में ,प्रभु सर्वत्र व्याप्त तू ही तू
शून्य, बना सत्यं शिवम् सुंदरम , जब जुबां पे तेरा नाम आया
-----मंजु शर्मा

Sunday 10 November 2013

जब दुःख का अँधेरा घिरने लगे ,और रात गुजरने से इंकार करे
जब जग में वीराना छाने लगे, साया साथ निभाने से इंकार करे 
खुश होओ सुबह का उजाला दूर नहीं ,सूरज अम्बर पे चमकेगा

और धरा को सूर्य किरण छूने लगे, तब बदी टिकने से इंकार करे
----मंजु शर्मा

Saturday 9 November 2013

मुक्तक ---

       ये बंधन बड़ा अनोखा है ,अँधेरे और उजाले का
       ये रिश्ता बड़ा निराला है ,साँझ और सवेरे का
       विपदाओं की बारिश और अज्ञानता की धुंध व्याप्त हो
       अंतस में जब झांकेगा रे ,राज खुलेगा इन्सां और रब का

       ---मंजु शर्मा

Thursday 7 November 2013



गीत --- एक दीप तुम जलाओ


एक दीप तुम जलाओ ,
एक दीप मैं जलाऊँ
एक दीप प्रीत का
एक दीप ज्ञान का
एक दीप रीति का
एक दीप दान का
एक दीप तुम जलाओ
एक दीप मैं जलाऊँ ……
एक हाथ तुम बढ़ाओ
एक हाथ मैं बढ़ाऊँ
अशिक्षा की ,धर्मान्धता की
अंधविश्वाश की ,कुप्रथाओं की
एक स्याही-लकीर तुम मिटाओ
एक काली लकीर मैं मिटाऊँ
एक दीप तुम जलाओ 
एक दीप मैं जलाऊँ  ………
एक आवाज तुम दो
एक आवाज मैं दूँ
मानवता की ,समानता की
अहिंसा की ,इन्साफ की
एक पुकार तुम सुनो
एक पुकार मैं सुनूँ
एक दीप तुम जलाओ
एक दीप मैं जलाऊँ  .......

एक कदम तुम उठाओ
एक कदम मैं उठाऊँ
वतन में अमन का
समाज में सदभाव का
नारी के सम्मान का
देश के विकास का
एक दीप तुम जलाओ
एक दीप मैं जलाऊँ  .......
एक प्रज्वलित दीप तुम्हारा
एक प्रज्वलित दीप मेरा
मिले बन जाये पवित्र ज्योति
विशालकाय दिव्य-अखण्ड ज्योति
अँधियारा मिटा दे हर अंतस का
उजला कर दे कण कण जग का
एक दीप तुम जलाओ
एक दीप मैं जलाऊँ  ……
एक दीप प्रीत का
एक दीप ज्ञान का  .....
-----मंजु शर्मा
लघुकथा - फेसबुक

दिपावली की स्याह काली रात तारों की छाँव और बिजली कि जलती बुझती रौशनी से टक्कर लेती हुयी आहिस्ता आहिस्ता गुजरती जा रही थी। रात के तीन बज चुके थे।पटाखों का शौर थम चुका था ,यदा-कदा एकाध आवाज से रात की नीरवता भंग हो जाती थी। मनीषा ने गर्दन घुमा कर देखा ,दो सालों से डिप्रेस्ड चल रहे पति दीवार ताकते-ताकते सो गए थे। दोनों बच्चे टीवी देखकर और फेस बुक पे नेट सर्फिंग करते थक कर सो गए थे। डिप्रेस्ड पति का ईलाज कराते और उन्हें सम्हालते सम्हालते थक कर वो स्वयं कुंठाओं में घिरने लगी थी। दिपावली कि चहल-पहल भी घर में छायी उदासी और मनहूसियत दूर नहीं कर सकी तो, मनीषा लैपटॉप खोलकर बैठ गयी, विचलित हो रहे ह्रदय के भावों को कहानी,लेखों और कविता में उड़ेला और विभिन्न ग्रुप्स में पोस्ट कर खुद को हल्का महसूस कर अपनी खीज़ व कुंठाओं को तिरोहित कर खुद का मानसिक संतुलन खोने से बचा लिया और फिर अपने जीवन के साथी बन चुके "फेसबुक" पर मुक्त और खुश मिजाजी से फेसबुकिया मित्रों को दिपावली की शुभकामनायें पोस्ट करने लगी।
----मंजु शर्मा
  लघुकथा ---- आँखें
     
           विजय और मनीषा जुहू बीच पर अपने अपने विचारों में तल्लीन बैठे थे कि
  आकथू कि आवाज आने से दोनों की तन्द्रा भंग हो गयी। मनीषा ने देखा थूक धीरे धीरे रेत में ज़ज्ब हो रहा है और उसके दिमाग में तुरंत कौंधने लगा ,वो हनीमून का समय था। अरैंज मैरिज को दस दिन हुए थे। प्यार के क्षणों में उसने पूछा था -
 "सुनो ! एक बात बताओ , मैं कैसी लग रही हूँ ?",
 " जैसी सब औरते लगती हैं " ,
 "अच्छा ,और मेरी आँखें ?"
 " तुम्हारी आँखें,अ  ……  जैसे किसी ने रेत्ते में थूक दिया हो ऐसी.…  " मनीषा सुन कर अवाक् रह गयी थी, अपनी आँखों के लिए इस विचित्र उपमा को पाकर उसकी आँखों में अपमान और दुःख से आँसु भर आये थे वो एक दम बुझ सी गयी थी।  वो जब भी "आक्थू " का स्वर सुनती तो उसके मन में नए नवेले पति की दी हुयी वो विचित्र उपमा कौंध जाती और वो सोचती जब थूक रेत में गिरता है तब जैसी, या जज़्ब हो रहा होता है, तब जैसी, अथवा जब जज़्ब हो चुका होता है तब के जैसी है मेरी आँखें? बीस साल से इसी सवाल से अक्सर उलझती रहती थी।
    " चलिए जी अब रात होने लगी है , सुबह हॉस्पिटल के लिए जल्दी निकलना होगा।"
  " आँखों का डोनर मिल गया ? "
   " हांजी " ,खुश होते हुए विजय बोला -
   "अरे वाह महीनों बाद डोनर मिला है ,अच्छा कौन है वो फरिश्ता ? "
    " वो और कोई नहीं ,मैं ही अपनी एक आँख दे रही हूँ ",
   "क्या …? तुम ?  क्यों ... ?"
    " पिछली  जैसी मनहूस दिवाली किसी की जिंदगी में ना आये जिसने तुम्हारी आँखें छीन लीं थी,…  साल भर से किसी डोनर का इन्तजार करते करते मैं भी थक गयी हूँ, तुम्हें इस हालत में और नहीं देख सकती, अब मैं ही तुम्हें अपनी एक आँख  दूंगी  … चलेगी रेत्ते में थूकने जैसी मेरी आँखे " ?
     -----मंजु शर्मा