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Tuesday 17 December 2013

    मुक्तक ----
        रजनीगंधा जब जब खिले , बनके खुशबु महका देते हो
        पूर्णिमा का जब चाँद निकले ,बनके रौशनी छा जाते हो
        कल में तुम,आज में तुम,मुझमें तुम,उसमें तुम,सबमें तुम
        प्रभु दुःख में जब याद करूँ , तुम बनके श्वाँस जीवन देते हो
        -----मँजु शर्मा
मुक्तक ---
       आज तक रखा हुआ है सम्हाल के गुज़रे हुए पलों  को
       बड़े जतन से सहेजा है जिंदगी के स्याह-सफ़ेद बीते पलों को
       जब जब कचोटने लगता है कोई किस्सा अंतर्मन मेरा

       गीत बुनने लगती हूँ खोल के यादों के उलझे हुये तारों को
      ---मँजु शर्मा
मुक्तक---
मुलाकात हमारी एक बहाना थी, मिलन आज तक कायम है
राहें जिंदगी हमारी कठिन थी , सफर आज तक सुहाना है
मशहूर हम इस कदर हुए , नज़ीर ज़माने की बनने लगे
सीने में तड़प जो उठी थी , चुभन अभी तक कायम है
----मँजु शर्मा
मुक्तक ----
मेरे जो कदम उठे थे सत्य की तलाश में 
जुल्फों में तेरी अटक गये सुकून की आस में
घर से निकलते लगन थी भव सागर पार करने की
रुके रह गये यहीं चारों धाम पाने की आस में
----मँजु शर्मा
मुक्तक ---
तेरी आँखों की चमक ही ,मेरे चेहरे का नूर है
तेरी लबों के अल्फाज़  ही  ,मेरी जिंदगी का सुर है
तुम्हारी बे होशी अँधेरा है मेरे जीवन पथ का
तेरी लड़ने की कोशिश ही , मेरी जिंदगी का दस्तूर है
---मँजु शर्मा
बाल कविता ---आया मौसम जाड़े का …

मौसम ने बदली करवट
आया मौसम जाड़े का
दिन छोटे और रातें लम्बी
सोके उठाओ आनंद जाड़े का

सरपे टोपी गले में मफलर
हाथ में दस्तानें पैरों में मोजे
मोटे मोटे कोट पैंट पहन के
सैर कर उठाओ आनंद जाड़े का

गुड़- मक्खन और मूँगफली
मटर की घुघरी ,गन्ने का रस
संग ताज़ा मट्ठा,साग -मक्का दी रोटी
भरपेट खाके उठाओ आनंद जाड़े का

आसमान ताकीद करे फेंकने की
बर्फ के मुलायम फाये बादलों को
लेकर छाता दौड़ के जाओ
खेलो कूदो उठाओ आनंद जाड़े का

मत भूलना माँ शारदा को
मांगो उनसे वरदान विद्धया का
ओढ़के रज़ाई ले कापी कलम किताबें
पढ़ाई कर उठाओ आनंद जाड़े का
----मँजु शर्मा

Friday 13 December 2013

कविता --ये कश्मीर…………

ये कश्मीर का  
निर्मल नीला आसमान
और सूर्योदय की पहली
सुनहरी मुलायम किरणें
जब छूती जमीं
कण- कण,पत्ता-पत्ता बूटा -बूटा
आनंदित हो बातों में
मशगूल होने लगतें कि
धमाके की आवाज से
दहल जाता परिसर 
सहम कर किरणें
ठहर जातीं अधर में
खौफ खा कर .... वृक्ष
समेटने लगते अपने
पत्तों ,फूलों,और कलियों को ……
और सिमट जाते
बेबस हो कर.......। 
ये कश्मीर का
निर्मल नीला आसमान
और विशाल पर्वत मालायें 
निकली इनसे नन्हीं नन्हीं
चंचल शिशु कन्या सी
निर्मल जल धाराएं
सूखी प्यासी धरा को
स्पर्श कर , जीवन दे
प्राणियों और वनस्पतियों को
वेगवान ,निरंतर ,प्रवाहित
परिवर्तित होती जाती
सुन्दर पवित्र बाला सी
कि बमों के धमाके होते
वो धक् से रह जाती
चंद पल को ठहर कर
दौड़ने लगती खौफज़दा हो कर …
सहमे हुए सब प्राणी
देखते रह जाते
बेबस हो कर। …।
ये कश्मीर का
नीला आसमान और
हिमाच्छिद पर्वत शिखर
सुन्दर स्वच्छ दुग्ध धवल …
धुंध से ढ़के पर्वत, झीलें,
जमीन,वृक्ष और मकान
पर्वतों से आती सर्द हवाएं
तन मन को रोमांचित करतीं
प्राण भरती कण कण में
बढ़ती जातीं मैदानों की ओर  … कि
धमाकों से दहल उठती घाटी
धवल धुंध कलुषित हो
ढ़क लेती पूरा आसमान
हवायें दो पल
स्तब्ध हो के ठहर जाती
फिर जहरीले प्रदूषण से
ग्रसित हो कर धीमे धीमे
फिसलने लगती
मैदानों की ओर
ये कश्मीर का
निर्मल नीला आसमान
सुन्दर सजीले इंसान
औए बमों के धमाके
जख्मी प्रकृति और इंसानियत
पूछते हैं यक्ष प्रशन
कोई तो बताये
ये जख्म देने वाले,
होते कौन ?
क्यों हमें जख्म देते हो ?
हमारा कसूर क्या है ?
कब तलक घायल यूँ करते रहोगे ?
इन मर्मान्तक सवालों पे
सियासतदाँ खिलखिला पड़ते
आततायी ठहाका लगाते
ऊपर बैठा खुदा भी है मौन
अभिशप्त किया जा रहा
पशु- पक्षी प्रकृति और इंसान
जबरन जुल्म ये सहने को
और धुंधला रहा है
कश्मीर का ये सुन्दर
निर्मल नीला आसमान
----मँजु शर्मा

 

Thursday 5 December 2013


मुक्तक ---
सहमी हुयी शांत झील में, मौजों की हलचल होये तो कुछ बात बनें
सिये हुए लबों से सुर निकले, फिजाओं में संगीत गूँजे तो कुछ बात बनें

कब तलक जख्मों को खुरचते रहोगे, मरहम लगवा कर मुस्कुराओगे
तब नेमत खुदा की बरसे ,ठहरी हुयी जिंदगी में रवानगी होये तो कुछ बात बनें
----मंजु शर्मा
मुक्तक ---
  गेसुओं के जाल से वो बचते रहे सदा
 सुकून की चाह में वो भटकते रहे सदा
 महिमा निराली है जुल्फों की छाँव की
 एक बार जो टकरा गए वो उलझे रहे सदा
 ----मंजु शर्मा
मुक्तक ----
तुझपे दिल हार बैठी ,जिंदगी सँवरने की आस में
भटकती दर दर रही , झलक दिखने की आस में
मंदिर ,मस्जिद ,चर्च, गुरुद्वारा भी ना कर सके तमन्ना पूरी
तमाम उम्र गुज़र गयी , तड़प मिटने की आस में
 ----मंजु शर्मा
 सफर दिन और रात का ----
  दिन भर चलते चलते
  थके निढाल सूरज ने
  किरणों को बटोरा
  अपने आँचल में
 और ज्यों ही लुढ़का
  समुन्दर की गोद में

  रजनी बाला पैरों में
  घुँघरू कलरव के बांध
  हौले हौले,छम छम करती
  जब आने लगी
  आबाद सब नीड़ होने लगे
  तब आसमान में
  चुपके से किसी ने
  ढके हुए थाल से

  तारों को दूर व्योम में
  अनंत तक बिखेर दिया
  अचंभित बाला रुक न पायी
  चुन चुन कर तारों को
  अपने आँचल में
   झट से टाँक लिया
   मुखड़े पे पड़ा घूँघट हटा
   ले मादक अँगड़ाई
   ज्यों रजनी बाला इतरायी
  चाँद मुस्कुराया और 
  चांदनी से जग
  सराबोर किया
  त्यों दूर क्षितिज़ पे
  चतुर्दिक हलचल पसरायी
   तारों के मेले में
   जगमग रौशनी में
   हौड़ मची उसे पाने
   जल ,थल और नभ में
   वो भी तो थी
   उत्सुक और बेसबर
   स्वप्निल मनमीत वरने
   वक्त यूँ ही गुज़र गया
   जीत न सका कोई

   उसका दिल
   निराश वो होने लगी
   सूरज आ गया
   हो तरोताजा अम्बर में
  उस से पुनः
  आने का वादा कर
  रजनी चली गयी सोने
 ये ही है सफर
 दिन रात का

 निभा कर दे रहे
 वे जीवन जग को
 युगों युगों से अनवरत
 अनवरत  .... अनवरत
  ---मंजु शर्मा
 
मुक्तक ---
आ गया फिर चुनावी बसंत ,फैला ली जनता ने उम्मीदों की झोली
आ गये सर्व दलीय नेता ,लेकर हसीन जादुई वादों की पोटली
खुशहाल ,शिक्षित ,सुरक्षित ,जीवन का सपना संजोय मतदान किया भारी  
सत्ता मद में चूर नेता प्रजा को भूले ,खाली रह गयी जनता की झोली
----मँजु शर्मा