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Thursday 18 July 2013

kavita-nadi

                        
नदी

हिमशिखरों पे जमीं बर्फ
जब चूमी धूप ने,...वो पिघली
बनके नीर ...चंचला ..अकुलाई
और चल पड़ी वेगवती धारा।

राह में खड़े थे छिछोरे ,शोहदे
बन के बाधाएं और अड़चने
कुछ छोटें कुछ बड़े पत्थर
और कुछ चट्टानें कुछ अडिग पर्वत।

चलते चलते रूपसी नन्हीं धारा
ठिठकती ,सहमती, होले होले चलती
रूकती ,धीरे से मुड़ती ,फिर मचलती
और दौड़ती अपने साजन सागर की ओर।

वो मदहोश कुंआरी कन्या सी धुन की पक्की
आलिंगनबध कर लेने को आतुर
खड़े पग पग पे उसके आशिक
और कोई बन सका उसका हमसफ़र।

उसका वेग कोई सह पाता
कोई उछल के परे हो जाता
कुछ टकरा के टूटते ...बिखरते जाते
और कुछ, कुछ कदम साथ चल देते।

लिये प्रियतम से मिलने की आस
दौड़ते दौड़ते बन गयी वो नवयौवना
सीने में उसके जनम जनम की प्यास
और सागर भी अपने उर में समाने को व्याकुल

मदहोश ,अपनी ही मस्ती में चूर बौराई सी
कभी सुनहरी ,कभी रुपहली ,कभी नीली कभी पीली
रंग बदल बदल कर चुनरिया ओढती वो बाला
और बढ़ी जा रही थी टेढ़े मेढे पथ पर अनवरत।

मनुष्य ,धरा का सर्वश्रेष्ठ प्राणी उसे सताने लगा
मैली करता अपनी करतूतों की गंदगी डाल
उज्जवल धवल पाकीजा , नदी सह नयी पाई
और अब कुम्लाहने सिमटने लगी खिलवाड़ से

युगों युगों से उसका सफ़र यूँ ही था जारी
नाजुक सुन्दर कन्या सी नदी
दुःख से सिकुड़कर नाला सी बन गयी
और प्रतीक्षारत है किसी तारणहार की।

-मंजु शर्मा
 

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