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Thursday 17 October 2013

   लघुकथा -- अप्रत्याशित          
     
       सबसे छोटी बहु घर में आ गयी , फुर्सत में बैठी रजनी की बरसों पुरानी ख्वाहिश
       फिर से जोर मारने लगी तो हुक्का गुडगुडा रहे पति से कहा -
      -"-सुनो अब सब खर्चे भी निपट गये ,अब तो अपना घर पक्का करवा दो,बिलकुल …."
       पति बीच में ही बोल पड़ा ---
      " सुधीर के जैसा या उससे भी अच्छा , … हूँ ऊ अ  ! पिछले हजार बारों की तरह ही मैं
      कह रहा हूँ कि नहीं कराऊंगा नहीं कराऊंगा ,… मेरे पे उतने पैसे नहीं हैं ,… तुझे रहना
      है तो रह नहीं तो चलती बन ,  जा उसी सुधीर के यहाँ या जिसका घर अच्छा लगे…,"
      कुछ पल बैठी रहने के बाद रजनी उठ गयी , और जब कमरे से बाहर आयीं तो हाथ में
     खुद की शादी में मायके से मिला सूटकेस था---
     " इस उम्र में भी जा जा जा ,… बस बहुत हो गया…. आज मैं जा ही रही हूँ… कहाँ ?.
     …पता नहीं …". पति स्तब्ध बैठा दरवाजे के पल्लों को हिलते डुलते देखता रह गया।
       ----मंजु शर्मा

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