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Friday, 13 December 2013

कविता --ये कश्मीर…………

ये कश्मीर का  
निर्मल नीला आसमान
और सूर्योदय की पहली
सुनहरी मुलायम किरणें
जब छूती जमीं
कण- कण,पत्ता-पत्ता बूटा -बूटा
आनंदित हो बातों में
मशगूल होने लगतें कि
धमाके की आवाज से
दहल जाता परिसर 
सहम कर किरणें
ठहर जातीं अधर में
खौफ खा कर .... वृक्ष
समेटने लगते अपने
पत्तों ,फूलों,और कलियों को ……
और सिमट जाते
बेबस हो कर.......। 
ये कश्मीर का
निर्मल नीला आसमान
और विशाल पर्वत मालायें 
निकली इनसे नन्हीं नन्हीं
चंचल शिशु कन्या सी
निर्मल जल धाराएं
सूखी प्यासी धरा को
स्पर्श कर , जीवन दे
प्राणियों और वनस्पतियों को
वेगवान ,निरंतर ,प्रवाहित
परिवर्तित होती जाती
सुन्दर पवित्र बाला सी
कि बमों के धमाके होते
वो धक् से रह जाती
चंद पल को ठहर कर
दौड़ने लगती खौफज़दा हो कर …
सहमे हुए सब प्राणी
देखते रह जाते
बेबस हो कर। …।
ये कश्मीर का
नीला आसमान और
हिमाच्छिद पर्वत शिखर
सुन्दर स्वच्छ दुग्ध धवल …
धुंध से ढ़के पर्वत, झीलें,
जमीन,वृक्ष और मकान
पर्वतों से आती सर्द हवाएं
तन मन को रोमांचित करतीं
प्राण भरती कण कण में
बढ़ती जातीं मैदानों की ओर  … कि
धमाकों से दहल उठती घाटी
धवल धुंध कलुषित हो
ढ़क लेती पूरा आसमान
हवायें दो पल
स्तब्ध हो के ठहर जाती
फिर जहरीले प्रदूषण से
ग्रसित हो कर धीमे धीमे
फिसलने लगती
मैदानों की ओर
ये कश्मीर का
निर्मल नीला आसमान
सुन्दर सजीले इंसान
औए बमों के धमाके
जख्मी प्रकृति और इंसानियत
पूछते हैं यक्ष प्रशन
कोई तो बताये
ये जख्म देने वाले,
होते कौन ?
क्यों हमें जख्म देते हो ?
हमारा कसूर क्या है ?
कब तलक घायल यूँ करते रहोगे ?
इन मर्मान्तक सवालों पे
सियासतदाँ खिलखिला पड़ते
आततायी ठहाका लगाते
ऊपर बैठा खुदा भी है मौन
अभिशप्त किया जा रहा
पशु- पक्षी प्रकृति और इंसान
जबरन जुल्म ये सहने को
और धुंधला रहा है
कश्मीर का ये सुन्दर
निर्मल नीला आसमान
----मँजु शर्मा

 

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