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Sunday, 20 January 2013

हर रोज जब दिन ढलता है
हर रोज जब दिन ढलता है
पंछियों के कलरव में
साँझ ,सुरमई घूँघट ओढ़े
पाएल खनकाती -सी आती है
मेरे ख्यालों के झूलों में
तुम उम्मीद मिलन की बन आते हो
आस का पंछी रोज चकता है
नया सवेरा उमंगों की सौगात
सूर्य किरण के संग लाता है
हवाओं को मुठ्ठी में कैद करने
वादिओं में समाये कोहरे को
अंक में भर लेने को जी चाहता है... क़ि
एक पीला पत्ता मेरे चेहरे को
छू कर नीचे गिर जाता है
तेजी से कौंध जाता है ....क़ि
जब कोई पीला पत्ता
पेड पर हरा हो जायेगा...या
बर्फ में जब कोईलाल गुलाब
खिल कर मुस्कुराएगा
तब मैं लौट कर आऊंगा
तेरे समक्ष वो लाल गुलाब
सीने से लगा ...तेरे बालों में लगाऊंगा
तुझे चूमूंगा ,और दिल में समां लूँगा
रोज ही पीला पत्ता उड़ जाता है
बर्फ क़ी तह मोटी होती जाती है
साँझ क़ी दुल्हन अंधेरों में छिप जाती है
पर्तीक्षा का दिन ...एक और गुज़र जाता है
मगर तुमसे मिलने क़ी आस
धूमिल नहीं होती ...
लालसा और बढ़ जाती है.
                                 
मंजू शर्मा

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