कविता - दिये की चाहत
आदिकाल से कल तक
मैं था माटी का नन्हा दिया
अंधियारी रातों में
दुनिया के हर कोने को
जलकर करता था रोशन,
आज विध्युत सामानों से उज्जवलित है
ये सारा जहाँ ,
मैं माटी का दिया उपेक्षित पड़ा
वर्ष मैं एक बार निकाला जाकर
रस्म अदाएगी को पुजकर
दिवाली,पूजा सम्पूर्ण कराताहूँ ,
या ........
आरती के थाल मैं जलकर
आशीर्वाद देने का भ्रम
बनाये रखता हूँ ,
या ......
अर्थी के समक्ष रौशनी फ़ैलाता हूँ
लोग सोचते हैं
मृतात्मा को राह दिखाता हूँ
अब मेरी ये चाह नहीं ...
मेरी तो अब इच्छा शेष है
हे मानव !..प्रज्ज्वलित करना
उन खंडरो ,वीरानों में
जहाँ ख़ामोशी से ..
वतन और इंसानियत के रखवाले
गुमनाम शहीद .....
सो रहें हैं .
मंजु शर्मा
श्रीनगर
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