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Wednesday, 2 January 2013

लघुकथा-घर

एक मजदूर दंपत्ति बहुमंजली इमारत को बनाने के कार्य में लगे थे। रात वे उसी निर्माणाधीन इमारत में गुजारते थे। इस बार उनके साथ उनका पाँच वर्षीय बच्चा भी था। इमारत का काम सम्पन्न हो जाने पर वे 
पुन:फुटपाथ पर आकर रहने लगे। 
        अबोध बच्चा एक दिन जिद करने लगा  - " बापू ! तुमने इतने सारे अच्छे -अच्छे घर बनायें है ,हम उनमे किसी में क्यों नहीं रहते ?,..अबकी बार जो घर बनायेंगे हम उसी में रहेंगे हाँ ,उसे छोड़ कर कहीं और 
नहीं जायेंगें। "
"बेटा  ! हम दूसरों का घर बनाने के लिए ही पैदा हुए हैं ...देख ये बल्ब जो खम्भे पर जल रहा है और वो सामने वाली झोंपड़ी में लालटेन जल रही है न ,सिर्फ दूसरों को ही रौशनी देने के लिए जलते हैं ,..ये स्वयं 
अपने करीब .देख कितना अँधेरा समेटे हुए हैं। उसी तरह हम भी दूसरों का घर अपना पसीना बहा कर ईंट पत्थरों और सीमेंट का बनाते है और हम स्वयं घास -फूस व मिटटी की झोंपड़ी में रहते है ..वैसे देख
 हमारा आज का घर सबसे आलीशान है। हमारे आज जैसे घर तो भगवान खुद बनाते हैं ..सितारे जड़े आसमान की छत है ,... सौंधी मिटटी का बिस्तर और चारों दिशाएं दीवार है।, ...है कोई दूसरा भाग्यवान
   दुनियाँ में कि ..."कह कर बापू जोर से हँस पड़ा। 
       बच्चा सो गया था , माँ के चेहरे पर वेदना और असंतोष न्रत्य कर रहे थे। और मजदूर अपने जीवन का दर्शनशास्त्र पुन:झाड़ने में लग गया।              
                                                                                                                                              मंजु शर्मा

 

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