तुम्हारी आँखों में मैनें सदा
अपने लिए कुछ देखा था
तुम्हारे लरजते लबों से
कुछ अपने लिए सुना था .
मेरी आवाज सुन कर सदा
तुम्हारा दौड़कर चले आना
सॉंसों को काबू करने की कोशिश में
सीने पर हाथ रख कर
मुस्कुराते हुए अभिवादन करना .
शामों को खेतों में सैर कराते हुए
मटर की छेमियां तोड़ते हुए
जब तुम्हारे चेहरे पर पड़ती थीं
सूरज की सुरमई किरणें
तुम्हारी मासूमियत और पाकीजगी से
दमक उठता था तुम्हारा सलोना चेहरा .
तब मैं व्याकुल हो उठती थी
तुम्हारी आँखों में बसी
लबों के पीछे छुपी चाहत को
तुम्हारी जुबान से सुनने को
हमारे जीवन की मर्यादाएं
बेड़िया डाल देती थीं लबों पे
हमारें बीच फासलें हैं जमाने के
तो क्या
इन अस्सी बसंत की बरसातों में
ग्रीष्म की उषा की लाली में
पूस की सर्द रातों में
तुम्हारी बोलती आँखों और
लरजते होंठों के कम्पन की यादों ने
कई बार जतलाया था तुम्हारी चाहत को .
फिर भी एक बार कह देते तो
बरसों से तड़पते दिल को
करार आगया होता ..काश
एक बार अपनी जुबाँ से भी कह देते
की तुम्हें हमसे मोहब्बत है
No comments:
Post a Comment