कविता - गर्विता माँ
चार बेटों ,चार बेटियों की गर्विता माँ थी
वो मुहँ अँधेरे उठती थी
लोटा लेके खेत को जाती
कुएं से पानी खींचती
डोल बाल्टी ताश कई भरती
खसर खसर करके वो आँगन बुहारती
फिर गोबर से उसे लीपती,
घरर घरर चक्की चलाके
परिजनों के भूख का सामान जुटाती
छबल छबल दही बिलोके छाछ मक्खन बनाती
फूँ..फूँ कर फूँकनी से चूल्हे में
गीली- सूखी लकड़ियों को फूँकती
चूल्हा भभक के से सुलग उठता ,
थपक थपक के रोटियां सेंकती
धुएं में घिरी, बहती आँखों को
पल्लू से पोंछती और रोटियां बनाती जाती
सबका पेट भर के
स्वयं भी तृप्त हो जाती
घर भर के कपड़े धोके
छत पे उन्हें सूखाने जाती
दोपहर में फिर से
चूल्हे के धुएं और लकड़ियों से जूझ कर
चौका चूल्हा सवाँर के दो घड़ी सुस्ताती
सँझा की रसोई ,गाएं-भैंस का चारा निबटा
लस्त- पस्त ,बेसुध हो चारपाई पे पड़
निंद्रा की गोद में समा जाती
यूँ ही गुजर गये अनेकों
बसंत, ग्रीष्म ,सावन और शरद ...
बच्चों के पंख मजबूत हुयें ..
पता भी ना चला कब उनके
अरमानों ने पंख फैलाये ,और भूख बढ़ी,
एक एक कर के वे सब
उड़ चले खुलें आसमान में ..
रोटी तलाशी ,ठौर बना लिया ....
वो आँगन अब सूना था
चार बेटों और चार बेटियों की गर्विता माँ
जीवन की सँझा बेला में
नितांत अकेली रह गयी
तन्हाई से घबरा कर..वो माँ
बच्चों की छूटी हुईं निशानियाँ
कभी सहेजती ,कभी चूमती ,कभी गले लगाती
उसी आँगन में ...यूँ ही
काटके अपनी उम्र चली गयी.....वो ..
चार बेटों और चार बेटियों की गर्विता माँ.
मंजु शर्मा
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