Saturday, 23 November 2013
कविता ---मैं भावनाओं की……।
मैं भावनाओं की
बहती नदी
वेगवती निरंतर प्रवाहमान
किस्सों में ढलती
कहानियों में पलती
कविताओं में बहती
मैं भावनाओं की
बहती नदी …
नियमों के तटबंध
ना रोक सकें
मन की गतिशीलता
उसूलों कि चट्टानें
न बांध सकें
भावनाओं के प्रवाह
की निरंतरता
मैं भावनाओं की
बहती नदी
अम्बर में बिखरे
चाँद सितारे
बागों में खिलते
फूल बहुतेरे
कलरव करते पंछी
मुक्त विचरते
उपवन में प्राणी
उर में जगाते
निरन्तर भाव
मैं भावनाओं की
बहती नदी
रिमझिम रिमझिम बरसता
असमान से पानी
पीइ.. कांआ…पीइ....कांआ पुकारते
प्यासे चकोर
सुन्दर पँख फैलाये
नृत्यरत मोर
भावनाओं को
अलंकृत करते शब्दों से
शब्द कविताओं में
ढलते जाते …
बहते जाते .... बहते जाते
मैं भावनाओं की
बहती नदी
वेगवती निरन्तर प्रवाहमान
मैं भावनाओं की
बहती नदी ……
मैं भावनाओं की
बहती नदी …।
----मंजु शर्मा
Sunday, 17 November 2013
Sunday, 10 November 2013
Saturday, 9 November 2013
Thursday, 7 November 2013
गीत --- एक दीप तुम जलाओ
एक दीप तुम जलाओ ,
एक दीप दान का
एक दीप तुम जलाओ
अशिक्षा की ,धर्मान्धता की
अंधविश्वाश की ,कुप्रथाओं की
एक दीप तुम जलाओ
एक दीप मैं जलाऊँ ………
एक स्याही-लकीर तुम मिटाओ
एक काली लकीर मैं मिटाऊँएक दीप तुम जलाओ
एक दीप मैं जलाऊँ ………
मानवता की ,समानता की
अहिंसा की ,इन्साफ की
एक पुकार तुम सुनो
नारी के सम्मान का
देश के विकास का
मिले बन जाये पवित्र ज्योति
विशालकाय दिव्य-अखण्ड ज्योति
अँधियारा मिटा दे हर अंतस का
उजला कर दे कण कण जग का
लघुकथा - फेसबुक
दिपावली की स्याह काली रात तारों की छाँव और बिजली कि जलती बुझती रौशनी से
टक्कर लेती हुयी आहिस्ता आहिस्ता गुजरती जा रही थी। रात के तीन बज चुके
थे।पटाखों का शौर थम चुका था ,यदा-कदा एकाध आवाज से रात की नीरवता भंग हो
जाती थी। मनीषा ने गर्दन घुमा कर देखा ,दो सालों से डिप्रेस्ड चल रहे पति
दीवार ताकते-ताकते सो गए थे। दोनों बच्चे टीवी देखकर और फेस बुक पे नेट
सर्फिंग करते थक कर सो गए थे। डिप्रेस्ड पति का ईलाज कराते और उन्हें
सम्हालते सम्हालते थक कर वो स्वयं कुंठाओं में घिरने लगी थी। दिपावली कि
चहल-पहल भी घर में छायी उदासी और मनहूसियत दूर नहीं कर सकी तो, मनीषा
लैपटॉप खोलकर बैठ गयी, विचलित हो रहे ह्रदय के भावों को कहानी,लेखों और
कविता में उड़ेला और विभिन्न ग्रुप्स में पोस्ट कर खुद को हल्का महसूस कर
अपनी खीज़ व कुंठाओं को तिरोहित कर खुद का मानसिक संतुलन खोने से बचा लिया
और फिर अपने जीवन के साथी बन चुके "फेसबुक" पर मुक्त और खुश मिजाजी से
फेसबुकिया मित्रों को दिपावली की शुभकामनायें पोस्ट करने लगी।
----मंजु शर्मा
लघुकथा ---- आँखें
विजय और मनीषा जुहू बीच पर अपने अपने विचारों में तल्लीन बैठे थे कि
आकथू कि आवाज आने से दोनों की तन्द्रा भंग हो गयी। मनीषा ने देखा थूक धीरे धीरे रेत में ज़ज्ब हो रहा है और उसके दिमाग में तुरंत कौंधने लगा ,वो हनीमून का समय था। अरैंज मैरिज को दस दिन हुए थे। प्यार के क्षणों में उसने पूछा था -
"सुनो ! एक बात बताओ , मैं कैसी लग रही हूँ ?",
" जैसी सब औरते लगती हैं " ,
"अच्छा ,और मेरी आँखें ?"
" तुम्हारी आँखें,अ …… जैसे किसी ने रेत्ते में थूक दिया हो ऐसी.… " मनीषा सुन कर अवाक् रह गयी थी, अपनी आँखों के लिए इस विचित्र उपमा को पाकर उसकी आँखों में अपमान और दुःख से आँसु भर आये थे वो एक दम बुझ सी गयी थी। वो जब भी "आक्थू " का स्वर सुनती तो उसके मन में नए नवेले पति की दी हुयी वो विचित्र उपमा कौंध जाती और वो सोचती जब थूक रेत में गिरता है तब जैसी, या जज़्ब हो रहा होता है, तब जैसी, अथवा जब जज़्ब हो चुका होता है तब के जैसी है मेरी आँखें? बीस साल से इसी सवाल से अक्सर उलझती रहती थी।
" चलिए जी अब रात होने लगी है , सुबह हॉस्पिटल के लिए जल्दी निकलना होगा।"
" आँखों का डोनर मिल गया ? "
" हांजी " ,खुश होते हुए विजय बोला -
"अरे वाह महीनों बाद डोनर मिला है ,अच्छा कौन है वो फरिश्ता ? "
" वो और कोई नहीं ,मैं ही अपनी एक आँख दे रही हूँ ",
"क्या …? तुम ? क्यों ... ?"
" पिछली जैसी मनहूस दिवाली किसी की जिंदगी में ना आये जिसने तुम्हारी आँखें छीन लीं थी,… साल भर से किसी डोनर का इन्तजार करते करते मैं भी थक गयी हूँ, तुम्हें इस हालत में और नहीं देख सकती, अब मैं ही तुम्हें अपनी एक आँख दूंगी … चलेगी रेत्ते में थूकने जैसी मेरी आँखे " ?
-----मंजु शर्मा
विजय और मनीषा जुहू बीच पर अपने अपने विचारों में तल्लीन बैठे थे कि
आकथू कि आवाज आने से दोनों की तन्द्रा भंग हो गयी। मनीषा ने देखा थूक धीरे धीरे रेत में ज़ज्ब हो रहा है और उसके दिमाग में तुरंत कौंधने लगा ,वो हनीमून का समय था। अरैंज मैरिज को दस दिन हुए थे। प्यार के क्षणों में उसने पूछा था -
"सुनो ! एक बात बताओ , मैं कैसी लग रही हूँ ?",
" जैसी सब औरते लगती हैं " ,
"अच्छा ,और मेरी आँखें ?"
" तुम्हारी आँखें,अ …… जैसे किसी ने रेत्ते में थूक दिया हो ऐसी.… " मनीषा सुन कर अवाक् रह गयी थी, अपनी आँखों के लिए इस विचित्र उपमा को पाकर उसकी आँखों में अपमान और दुःख से आँसु भर आये थे वो एक दम बुझ सी गयी थी। वो जब भी "आक्थू " का स्वर सुनती तो उसके मन में नए नवेले पति की दी हुयी वो विचित्र उपमा कौंध जाती और वो सोचती जब थूक रेत में गिरता है तब जैसी, या जज़्ब हो रहा होता है, तब जैसी, अथवा जब जज़्ब हो चुका होता है तब के जैसी है मेरी आँखें? बीस साल से इसी सवाल से अक्सर उलझती रहती थी।
" चलिए जी अब रात होने लगी है , सुबह हॉस्पिटल के लिए जल्दी निकलना होगा।"
" आँखों का डोनर मिल गया ? "
" हांजी " ,खुश होते हुए विजय बोला -
"अरे वाह महीनों बाद डोनर मिला है ,अच्छा कौन है वो फरिश्ता ? "
" वो और कोई नहीं ,मैं ही अपनी एक आँख दे रही हूँ ",
"क्या …? तुम ? क्यों ... ?"
" पिछली जैसी मनहूस दिवाली किसी की जिंदगी में ना आये जिसने तुम्हारी आँखें छीन लीं थी,… साल भर से किसी डोनर का इन्तजार करते करते मैं भी थक गयी हूँ, तुम्हें इस हालत में और नहीं देख सकती, अब मैं ही तुम्हें अपनी एक आँख दूंगी … चलेगी रेत्ते में थूकने जैसी मेरी आँखे " ?
-----मंजु शर्मा
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